-वीर विनोद छाबड़ा
जब होश संभाला था तो
उन दिनों हर तरफ मुझे सिगरेट पीने वाले ही नज़र आये। घर में पिताजी को धूंआधार सिगरेट
पीते देखा।
दादाजी और अन्य रिश्तेदार
भी सिगरेट के लती थे। दादाजी को तो मुट्ठी में दबाकर कैवेंडर पीते देखा।
स्कूल में भी टीचर्स
रूम में कई अध्यापक कश खींचा करते थे। सिनेमा के परदे पर हीरो को ग़म ग़लत करने के लिए
सिगरेट पीनी पड़ी तो विलेन को क्रूर दिखने के लिए धुएं के छल्ले उड़ाने पड़े। महफ़िलों
में बिना सिगरेट दारू पीने वालों को मज़ा नहीं आता था।
मुझे पिताजी बताया
करते थे कि जब मैं गोदी था तो उनके मुंह से सिगरेट छीना करता था। ऐसे ही हालात का सामना
मुझे तब करना पड़ा जब मेरी बेटी ने मेरे मुंह से सिगरेट छीनी।
बड़ी बहन शादी के बाद
पहली बार घर आयी तो मैंने पूछा था- जीजाजी सिगरेट पीते हैं?
वो बोली - ना बाबा,
ना। बिलकुल नहीं। उनके सामने पीना तो दूर नाम तक भी नहीं लेना। सिगरेट से सख्त
नफ़रत करते हैं वो। मैं महीनों इसी मुगालते में रहा। एक बार मैं उनसे मिलने बीकानेर
गया। रात भोजन के बाद टहलने निकले। सिगरेट की ज़बरदस्त तलब लगी। कई दिन से सिगरेट होंटों
पर नहीं लगी थी। मैंने तनिक संकोच से जीजा से सिगरेट पीने की आज्ञा मांगी तो सहर्ष
स्वीकृति प्रदान करते हुए वो बोले- दो लेना। एक मेरे लिये भी।
मैं अवाक उनका मुंह
देखता रह गया। फिर उनके ही श्रीमुख से पता चला कि वो पुराने सिगरेट पीने वालों में
से हैं।
यूनिवर्सटी में प्लेटो
की ‘रिपब्लिक’ और अरस्तू की ‘पोलिटिक्स’
पढ़ाने और उस पर लंबे जादुई भाषण देने वाले हमारे जीनीयस प्रोफेसर डा०राजेंद्र अवस्थी
तो क्लास में आने के पूर्व टीचर्स रूम में बैठकर दो-तीन सिगरेट फूंक कर आये। शायद इसके
धूंए में वो सुकरात, अरस्तू और प्लेटो की रूह से रूबरू हुए। इसीलिये पढ़ाते-पढ़ाते
वो ईसा पूर्व इरा में खुद भी पहुंच जाते थे और साथ में हम स्टूडेंट्स को भी ले चलते
थे।
इससे मेरी ये धारणा
बलवती हो गयी कि फ़िलासफ़र बनने के लिये सिगरेट ज़रूरी है।
नौकरी लगी तो वहां
भी ज्यादातर संगी-साथी सिगरेट पीने वाले मिले। यहां मैंने कई अजीबो गरीब लोग देखे।
बिना इज़ाज़त सिगरेट उठाई और होंटों से लगा कर सुलगा ली। मैंने इनको कभी खरीद कर सिगरेट
पीते नहीं देखा। ताउम्र फ्री का धुआं उड़ाते रहे। अपनी सेहत भी न देखी। एक बंधु तो इसी
चक्कर में खुदा को प्यारे हो गए। एक साहब तो रास्ते चलते दूसरे के मुंह से सिगरेट छीन
लेने के लिए बदनाम थे।
एक बार क्या हुआ कि
हमारे डायरेक्टर ने मीटिंग कॉल की। हम पांच ऑफिसर उनके सामने थे। हर दस मिनट बाद हममें
से एक किसी न किसी बहाने से उठ कर बाहर जाता और पांच मिनट बाद वापस आता। डायरेक्टर
साहब को शक़ हुआ। सिगरेट का गहरा कश खींचते हुए मुझसे पूछा - सच-सच बताओ यह बाहर क्या
करने जाते तो?
मैंने सच बता दिया
- सर, टेंशन रिलीज़ करने के लिए कश लगाने जाते हैं।
उन्होंने कहा - इसके
लिए बाहर जाने की क्या ज़रूरत। यहीं पी लो। टाइम तो वेस्ट नहीं होगा। मैं भी तो पी रहा
हूं।
हम सब शर्मिंदा हुए।
और अगले दो घंटे तक सिगरेट की तलब को काबू में रखा।
यों एक अफ़सर ऐसे भी
मिले जो कहते थे - सिगरेट और टेंशन दोनों सेहत के लिए खराब हैं। लेकिन अगर सिगरेट पीने
से टेंशन खत्म होती है तो एक-आध सिगरेट पीने में कोई बुराई नहीं।
मुझे तैंतीस साल बाद
समझ आई कि सिगरेट के बिना ज़िंदगी में ज्यादा मज़ा है। आज चौदह साल हो गए हैं मज़े लेते हुए।
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09-06-2017
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