- वीर विनोद छाबड़ा
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सरकारी नौकरी में कोई किसी का सगा नहीं होता। सबको अपने
प्रमोशन का ख्याल होता है। होना भी चाहिए। लेकिन दुःख होता है कि संकट के समय सब दूर
चले जाते हैं। कोई डूब रहा होता है तो उसे बचाने की बजाए एक धक्का और दे दिया, जा जल्दी से पूरा ही
डूब जा। कभी कभी कोई बेगाना ही काम आता है।
हमारे साथ तो कई बार ऐसा ही हुआ है अब तक। कई बार हमीं ने राजफाश किया। व्हिसल
ब्लोअर का काम किया, लेकिन हमीं फंस गए। जवाब तलब हो गया।
लेकिन हम हमेशा इस बात के कायल रहे कि जीत अंततः सच्चाई की होती है। हमारे इसी
विश्वास ने हमें जिताया।
एक केस में हम उच्चाधिकारियों को समय समय पर फाईल पर सबूत सही नोट लिख कर बताते
रहे कि फलां का सेलेक्शन ग़लत है। इसके विरुद्ध दहेज़ उत्पीड़न का पुलिस केस है। चार दिन
सलाखों के पीछे रहा है। नियमानुसार पहले इसका डीम्ड सस्पेंशन होना ज़रूरी है। लेकिन
हमारी बात नहीं मानी गयी। हमारे उच्चाधिकारी हमारी बात को काटते रहे। नतीजा यह हुआ
कि वो फलां प्रोमोट हो गया। शासन से शिकायत आई। हमारा जवाब-तलब हुआ। हमने पूरा-पूरा
सहयोग किया। चेयरमैन तक को हमने पूरा केस बताया।
लेकिन वही हुआ जिसका हमें अंदेशा था। जांच समिति बन गयी। गलती करने वाले जिस अधिकारी
को चार्जशीट मिलनी चाहिए थी उसे न मिल कर हमें मिली। हमारे कैडर में चार्जशीट मिलना
ही असाधारण घटना थी। शायद हमारे खानदान में चार्जशीट वाले हम पहले थे। लेकिन हमें कोई
आघात नहीं लगा। हमें विश्वास था कि हम पाक साफ़ हैं। बिना खरोंच बा-इज़्ज़त सीना चौड़ा
करके बाहर आएंगे। हमारे पास सबूत थे। सच्चाई के रास्ते पर थे। ऑफिस से इंसाफ न मिला
तो कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएंगे।
हमें सबसे ख़राब लगा तो यह कि करीब साल भर तक यह केस चला और हम इस बीच नितांत अकेले
रहे। सहकर्मियों ने हमें दाद-खाज-खुजली वाहक समझ लिया। कतिपय मित्रों ने तो घोषित ही
कर दिया कि 'छाबड़ा तो गियो'. किसी ने दो शब्द सहानुभूति तक न व्यक्त किये। हम कंधे तलाशते रहे जिन पर सर रख
कर ग़म ग़लत कर सकें।
यों भी हमने ज़िंदगी की हर लड़ाई अकेले ही लड़ी है। यह भी लड़ी। हम सबूतों के साथ लड़
रहे थे। नतीजा यह हुआ कि हम पाक-दामन बाहर आये। निष्कलंक घोषित हुए। हमारा रुका हुआ
प्रमोशन भी क्लीयर हो गया।
हमारे बड़े-बुज़ुर्गों ने हमें सिखाया था कि ख़ुशी को बांटों तो बढ़ेगी और दुःख को
बांटो तो हल्का होगा। हालांकि दुःख तो हमने अकेले झेले, और ऐसा पहली बार नहीं
हो रहा था। अब होता है। बहरहाल, लेकिन ख़ुशी को हमने बांट दिया। एक शानदार दावत दी। अपने-पराये सब आये।
अकेले-अकेले लड्डू खाने में मज़ा हमें कभी नहीं आया।
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08-06-2017
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अंत में जीत के बाद जो दावत आपने दी उसमें सभी आएं होंगे।
ReplyDeleteखाने-पीने के लिए तो सभी आगे रहते हैं लेकिन काम के लिए बहानेबाजी
सच है मिल बांटकर खाने से ख़ुशी मिलती है लेकिन कमबख्त सभी लोग यह बात कहाँ समझते हैं ?
प्रेरक प्रस्तुति