Monday, June 1, 2015

बतरा साहब की कार!

-वीर विनोद छाबड़ा
जिस ज़माने में हमने होश संभाला था तब बस को लॉरी और कार को मोटर बोला जाता था। याद आता है गाड़ी स्टार्ट करने के लिए अक्सर लोहे के खास हैंडिल को ट्रक और लॉरी के इंजन के ठीक नीचे बने एक सुराख में डाल कर बड़ी तेजी से घुमाया जाता था। मोटर भी कभी-कभी चाबी से स्टार्ट न होने की ज़िद पकड़ लेती थी।
हमें याद है कि पिताजी के एक गहरे मित्र होते थे - सतीश बतरा। लार्सन एंड टूब्रो में बड़े ओहदे पर तैनात थे। उनके पास एक एक काली एम्बेस्डर कार थी। वो उर्दू के मशहूर अफसानानिगार भी थे। उनके कई कहानी संग्रहों को यूपी गवर्नमेंट ने ईनाम भी दिया था। उस ज़माने में उर्दू अकादेमी नहीं थी।

नशिस्तों के सिलसिले के अलावा भी बतरा साब अक्सर हमारे यहां आते थे। लखनऊ के वज़ीर हसन रोड एक बहुत बड़े बंगले में रहते थे। हम लोग आलमबाग की चंदर नगर मार्किट के ऊपर बने रिहाइशी फ्लैट में थे। हमने कार की पहली सवारी उनकी कार में ही की थी।
बतरा साब और हमारे पिताजी क्रिकेट के बहुत शौक़ीन थे। जब भी मिलते थे उनके अजेंडे में उर्दू इल्मो-अदब के बाद क्रिकेट पर चर्चा होती थी।
उन दिनों इंग्लैंड की टेस्ट टीम भारत आई हुई थी। कानपुर में भी एक टेस्ट था। तय हुआ कि एक दिन चल के टेस्ट देखा जाये। इसमें हम भी शामिल किये गए।  हम कोई ग्यारह साल के थे। मुझे याद पड़ता है कि बतरा  साब और मेरे पिताजी ने भी इससे पहले कभी टेस्ट नहीं देखा था।
बतरा साब की कानपुर में अच्छी वाक़फ़ियत थी। टिकटों का इंतेज़ाम उन्होंने कर लिया। वो टेस्ट का तीसरा दिन था- ०३ दिसंबर १९६१। इतवार था उस दिन।
हम सवेरे-सवेरे उनकी कार से कानपुर रवाना हुए। बतरा साब की पत्नी त्रिप्ता भी साथ में थीं। उन्हें वो प्यार से त्रिपत पुकारते थे।
ज़िंदगी में में हमने पहली दफ़े क्रिकेट का मैदान देखा - ग्रीन पार्क। जैसा नाम था वैसा ही पाया। मैदान पर हमने पॉली उमरीगर और फारुख इंजीनियर को जमे देखा। ये फ़ारूख़ का पहला टेस्ट था। भारत ने फ़ारूख़ के आउट होते ही डिक्लेअर कर दिया। 
उस दिन हमने मैदान में जयसिम्हा, कांट्रेक्टर, सरदेसाई, दुर्रानी, बोर्डे, मांजरेकर और कृपाल सिंह के अलावा इंग्लिश कप्तान टेड डेक्सटर के अलावा, माइक स्मिथ, केन बैरिंग्टन, ज्यॉफ पुलर,टोनी लॉक, स्टेथम  जैसे धुरंधरों को पहली  दफ़े रूबरू देखा था। बड़ा मज़ा आया दिन भर। शाम तक इंग्लैंड के १६८ रन पर आठ विकेट उखड चुके थे। फॉलोआन का खतरा पूरी मंडरा रहा था।
 
वापसी का सफ़र थोड़ा तकलीफदेह रहा। कार बार-बार गरम हो रही थी। अंधेरा भी घना था। शायद तब आज की तरह के कूलेंट वाले रेडियेटर का चलन नहीं था। कई बार रास्ते में कार रोक उसमें पानी डालना पड़ा। लंबे सफ़र में पानी का एक केन डिकी में रखा जाता था। स्टार्ट करने के लिए बीच-बीच में हैंडिल का इस्तेमाल भी किया गया। हम देर रात घर पहुंचे थे।
हमें तो टेस्ट मैच देखने में जितना मज़ा आया उतना ही सफ़र वापसी में रेडियेटर में पानी डालने वाली इस कवायद में भी आया था।
-वीर विनोद छाबड़ा ०१-०६-२०१५ मो. ७५०५६६३६२६ 

डी० - २२९० इंदिरा नगर लखनऊ - २२६०१६

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