Friday, June 5, 2015

और यूं छूटी सिगरेट!

-वीर विनोद छाबड़ा
२००३ के किसी दिन की बात। कुछ दिन से लगातार खांसी-जुकाम से पीड़ित। बीपी और हाइपर टेंशन का दवा पिछले चार साल से राज-रोग। डॉक्टर ने चेस्ट  एक्सरे कराया। सब ठीक निकला।
फिर भी डॉक्टर ने सलाह दी -छोड़ दो सिगरेट। क्या रखा है? ज़िंदगी छोटी ही तो हो रही है।
कई लोग मशविरा दे चुके थे। अहसास तो मुझे भी था कि सिगरेट ने मुझे गुलाम बना रखा है। गुलामी भला किसे पसंद होती है।
मगर आफ़िस में कार्य की अधिकता और कुछ घरेलू परेशानियों की मज़बूत घेराबंदी। टेंशन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। लगता था सिगरेट के मजबूत सहारे की बदौलत ही मुक़ाबला कर पा रहा हूं। इसीलिये न मैं इस छोड़ रहा था और न ये मुझे।
लेकिन चालीस साल से रोज़ाना दो डिब्बी पीने वाले मित्र महेश चंद्र सिन्हा (अब दिवंगत) ने एक झटके में सिगरेट छोड़ दी। इससे मैं बेहद प्रभावित हुआ। जलन भी हुई। बार-बार खुद से सवाल किया कि क्या इतना मजबूत इरादा मेरा नहीं हो सकता?
याद आया कई साल पहले पैंक्रियास की दिक्कत के चलते मैंने चार महीने सिगरेट नहीं छूई थी। परंतु वो एक मजबूरी थी। सब ठीक हो जाने के बाद फिर मुंह में आ लगी। किसी ने ऑफर किया और मैं इंकार नहीं कर सका। कुछ ही दिन में वही पहली जैसी रफ़्तार। हां, इतनी पाबंदी ज़रूर आयत की कि घर में बैठ कर नहीं पी और न दूसरों को पीने दी। जब तलब लगी तो कहीं दूर निकल गए।
इसका मतलब यह कि मैं छोड़ सकता हूं। इरादा तो किया जाए। भले ही ट्रायल के तौर पर। एक-दो दिन का सिगरेट उपवास रख कर। बस मौका मिले कोई।
और जल्दी ही मौका भी मिला। उस दिन चेयरमैन ने एक बेहद ज़रूरी और गोपनीय नोट तैयार के लिये सुबह-सुबह तलब किया। सुबह से शाम हो गयी। काम खत्म नहीं हुआ। इस बीच सिगरेट की तलब कई बार शिद्दत से महसूस हुई। पर चेयरमैन सामने हो तो सिगरेट कैसे धौंकी जाये? जबकि खुद उन्होंने हर पंद्रह-बीस मिनट पर एक सिगरेट फूंकी।
आखि़रकार काम ख़त्म हुआ। बाहर निकला। चिराग़ जल चुके थे। सिगरेट मुंह में लगाई। अभी सुलगाने को ही था कि मैंने खुद से सवाल किया- यार सारा दिन निकाल दिया। अब दिन बचा ही कितना है? कल पी लेना। सिगरेट के चुंगल से छूटने का यह पहला कदम हो सकता है। कोशिश कर। दिल मज़बूत कर। कलेजे पर पत्थर रख।
खुद को समझाते-रगड़ते जाने कब घर पहुंच गया। दिन भर का थका हुआ था। जल्दी आंख लग गयी। अगली सुबह जब उठा तो मैंने महसूस किया कि गुज़री रात मैंने बड़े इत्मीनान से काटी है। बड़ा भारी किला फतेह कर लिया है।
अपने आप पर जीत हासिल करना, जंग का मैदान मारने से कम नहीं होता। खुद पर यकीन होने लगा कि मैं सिगरेट छोड़ने का फैसला ले सकता हूं। डर ज़रूर लगा रहा कि कहीं शाम होते-होते मैं जंग हार न जाऊं।
ऐसी स्थिति हफ्ते भर तक रही। लेकिन मैं रोज़ जंग जीतता रहा। जीतने की आदत पड़ गई। एक बात और कि उन दिनों कतिपय कारणों से मैं लेखन की दुनिया से बहुत दूर था। अन्यथा मैं कमजोर हो सकता था।

बहरहाल वो दिन है और आज का दिन। बारह साल होने को आये। मैंने सिगरेट नहीं छुई। कभी इच्छा भी नहीं हुई। यहां तक कि कोई दो साल पहले जब मैं  बारह साल के स्वः बनवास के बाद लेखन की दुनिया में वापस आया तो लेबर पेन जैसी वेदना हुई। एकबारगी महसूस हुआ कि इस वेदना से बाहर आने के लिये एक अदद सिगरेट सहारा बन सकती है। परंतु मेरा अहं आड़े आ गया। बेतरह लताड़ा और ललकारा।
और मेरा अहं जीत गया। मैंने खूब तालियां बजायीं। यह ज़िंदगी बहुत हसीन है। 

नोट - एक दुख ज़रूर रहा कि ऐसा मौका नहीं मिला कि महीना भर पहले सिगरेट छोड़ने की घोषणा कर सकूं। कोई जश्न नहीं मना सका। काश, मैं भी सचिन तेंदुलकर होता!
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