Saturday, June 6, 2015

धरती के लाल।

-वीर विनोद छाबड़ा
१९४३ में बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष पड़ा था। यह दुर्भिक्ष जमाखोरों के लिये वरदान था।
ज़मींदार और जमाखोर मिल कर अशिक्षित और भोले किसानों से अनाज के बदले ज़मीने हड़प लेते हैं।

दुर्भिक्ष से प्रभावित हज़ारों लोग गांव से कलकत्ता भाग जाते हैं।
यहां भी जमाखोर हैं। इंसान की शक्ल में भेड़िये बहुत हैं।
गांव भाई-भाई की तरह रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम को शहर के लोग धर्म के आधार पर बांट सांप्रदायिकता की भावनायें भड़काते हैं।
हिन्दू का रिलीफ़ कैंप अलग है और मुसलमान का अलग।
दोनों में यदा-कदा ही भोजन मिलता है।
जब कभी हिन्दू कैंप में भोजन बंटता है तो हिन्दू अपने कैंप में मुसलमान को नहीं घुसने देता। इसी तरह मुसलमान अपने कैंप से हिन्दू को भगा देता है।
कई लोगों को काम नहीं मिलता।
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कुछ तन बेचने के लिये हैं।
कुछ भीख मांगने पर मज़बूर हैं। भीख ने मिलने पर उन्हें झूठन पर भी बसर करनी पड़ती है।
कई मर जाते हैं - कुछ भूख से और कुछ बीमारी से।  
इसी में एक सीन था।
एक घर से झूठन कूड़ेदान में फेंकी जाती है।
झूठन के ऊपर हक़ ज़माने के लिए कुत्ता और भूखे इंसान भेड़िये की मानिंद टूट पड़ते हैं।
भीख मांगता एक किरदार उन्हें देख कर हंसता है - सुना था बंदर से इंसान बना है। मगर आज इंसान को इंसान से कुत्ता बनता देख रहा हूं।
शहर से निराश और हताश किसान आख़िर में अपने घर लौटने का फैसला करता है। और सामुदायिक खेती के ज़रिये अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश करता है। 
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०६ जून २०१५ मो. ७६०५६६३६२६
डी-२२९० इंदिरा नगर लखनऊ – २२६०१६

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