Saturday, June 27, 2015

थैला युग की वापसी।

-वीर विनोद छाबड़ा
हमारी लेन में  नुक्कड़ पर प्रभुजी रहते हैं। सेवानिवृत हो चुके हैं। उनके बारे में आज भी वही आम धारणा जो ३३ बरस पहले थी। खड़ूस, नसुड्ढा, खूसट और मक्खीचूस। सुबह-सुबह सामने पड़ जायें तो सारा दिन ख़राब। लेकिन मेरे लिये उल्टा है। सारा दिन बल्ले ही बल्ले।
मैं प्रभुजी को हमेशा से भद्रपुरुष मानता आया हूं। इसकी वज़ह है उनके हाथ में टंगा फटी-पुरानी पैंट से बना थैला। थैला उनकी पहचान है। बिना थैले के राह चलते मिल जायें तो कदाचित पहचान भी न सकूं। वस्तुतः वो और थैला, किसी युग-पुरुष की आकृति की ही याद नहीं दिलाती, बल्कि मुझे अपने युग में वापस ले जाती है।

यह वो ज़माना था जब पैंटें चूतड़ या घुटने से घिस-पिट जातीं, उनकी डिज़ाइन पुरानी पड़ जाती तो इन्हें चीर-फाड़ कर थैला बना दिया जाता। सिलाई-कढ़ाई में निपुण महिलाएं तो क़तर-ब्यौंत करके छोटे-बड़े एक-दो थैले निकाल लेतीं। किसी के हाथ में दोरंगा थैला दिख जाता तो लोग समझ जाते कि बुरी तरह घिसी दो पैंटों से निकला है।
सत्तर-अस्सी के दशक में हमारे दफ्तर के कई बाबू लोगों की शोभा होते थे ये थैले। कभी थैले में थैला भी होता। सब्ज़ी और परचून का सामान लेते हुए घर लौटना होता। बाज़ तो खामख्वाह ही शाम देर से दफ्तर से निकलते। यह समय सब्ज़ी वालों की घर वापसी का होता था। बची-खुची सब्ज़ी सस्ते-मद्दे में बेचने की जल्दी रहती थी उन्हें।
ब्यासी की शुरुआत में जब हम इंदिरा नगर आये तो नयी कॉलोनी होने के कारण सब्ज़ी पांच किलोमीटर पहले निशातगंज में मिलती थी। दफ्तर से लौटते हुए सब्ज़ी लेनी पड़ती। सबसे पहले आलू और प्याज़। फिर कद्दू और लौकी। गाज़र। बाकी सब्ज़ियां - भिंडी, तुरई, मटर, परवल और सबसे आख़िर में टमाटर और नीबू। और उसके ऊपर फ्री की हरी धनिया और मिर्ची। एक छोटे परिवार के लिए इतने सामान के लिए एक थैला काफी होता। 
ऐसा ही परचून की दुकान पर होता। कई लिफाफों को सहेज कर एक थैले में रख लेते और फिर साइकिल के हैंडल के दोनों तरफ़ टांग कर घंटी बजाते हुए घर लौटते। पत्नी और बच्चे दरवाज़े पर इंतज़ार करते होते। फिर बच्चों में थैलों को उतारने के लिए छीना-झपटी धक्का-मुक्की।
हमारे पास एक सुवेगा मोपेड भी होती थी। कभी-कभी उसका भी इस्तेमाल होता। एक बार हमने पांच किलो तेल का डिब्बा मोपेड के कैरियर में फंसा दिया। एक छोटा सा गड्डा। ध्यान नहीं दिया। मोपेड उछली। तेल का डिब्बा सड़क पर गिरा और फट गया। सारा तेल सड़क पर फैल गया। उस दिन हमें थैले की बड़ी शिद्दत से याद आई।
कोई काम हो या न हो। हाथ में एक अदद छोटा मोटा थैला और बांधने के लिए थोड़ी सी रस्सी ज़रूर होना चाहिए। भले ही लोग थैला बाबू कहें। हमारी बरसों थैला बाबू टाइप स्थिति रही। एक दिन हमने ध्यान से आईना देखा। हमें अपनी शक्ल में थैले की आकृति दिखाई दी। इससे पहले कि दुनिया हमें पागल घोषित करती शुक्र है कि ऊपर वाले ने हमारी सुन ली। पॉलिथीन बैग का युग शुरू हो गया। खाली हाथ निकलो। एक बड़े बैग में कई छोटे-छोटे बैग।

उस दिन प्रभु जी बहुत प्रसन्न दिखे - सरकार पॉलिथीन बैग पर प्रतिबंध को दृढ़प्रतिज्ञ है। थैला युग की वापसी होगी।
हमने कहा - कई व्यापारिक संस्थान तो मज़बूत पेपर बैग में सामान देने भी लगे है। डिज़ाइनर जूट-थैले भी बहुतायत में आ गए हैं।
प्रभुजी मेरा इशारा समझ गए - यह घिसी-फटी पेंट से बना थैला दिल के ज्यादा करीब है। हर चीज़ का अधिकतम प्रयोग होना चाहिए।
उनसे प्रभावित होकर मैंने भी आठ-दस साल पुरानी पैंटें तलाशनी शुरू कर दी है।

२७-०६-२०१५ 

1 comment:

  1. Lovely post sir.. I must say aap bhaut acha likhte hain.. I recommended my father to read your blog regularly :)

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