-वीर विनोद छाबड़ा
आज एक म्यूज़िक चैनल
पर पुरानी फ़िल्म का गाना देख रहा था। उसमें प्राण साहब को देखा।
मुझे तो उनका वो चेहरा
याद आ गया जब वो हीरो की बड़ी बेदर्दी से लात-घूंसों से और ज़मीन पर पटक-पटक कर पिटाई
करते थे। हीरो की इतनी बेक़द्री किसी अन्य विलेन के हाथों होती मैंने कभी नहीं देखी।
वो बात अलबत्ता दूसरी है कि अधमरा हो चुका हीरो बाद में उनकी ऐसी कम तैसी करता था।
तमाशबीन थिएटर से बाहर
निकल बेरहम प्राण साहब की बात करते थे - क्या तोड़ा है भाई ने हीरो को। मान गए।
तमाम हीरोइनों को बड़ा
बुरा लगता था कि उसका हीरो ज्यादा पिटता है और प्राण साहब कम। यह बात पचास और साठ के
दशक की है। हीरो लोग स्क्रिप्ट में बदलाव करने की कोशिश में लगे रहते थे कि दुर्दांत
प्राण साहब के हाथों न पिटना पड़े। लेकिन नया हीरो चाहता था कि प्राण साहब उसे खूब पीटें।
जितना चाहें पीटें। कम से कम नाम तो होगा।
अभिनय सम्राट दिलीप
कुमार भी फिल्मों में प्राण के हाथों कई बार धर-धर पिटे हैं। लेकिन वो दोनों स्क्रीन
के बाहर बहुत अच्छे दोस्त थे। दिलीप ने चाहा स्क्रीन पर जब कोई विलेन उन्हें पीटे तो
वो प्राण ही हो। दोस्त के हाथ पिटना अच्छा लगता है।
जब 'उपकार' में प्राण साहब सहृदय
मलंग बाबा की भूमिका में आये तो तमाम नायकों को चैन मिला- प्राण साहब से बचे यारों।
साठ के दशक में प्राण
साहब बुरे आदमी की पराकाष्ठा पर थे। लोगों ने बच्चों का नाम प्राण रखना बंद कर दिया
था। ये एक्टिंग की लाजवाब कामयाबी का नमूना था।
बताया जाता है कि प्राण
साहब की बुराई का मीटर चेक करने के लिए उनके परिवार वालों ने एक इश्तिहार छपवाया था
- १९६० के आसपास जन्मे जिस बच्चे का नाम प्राण रखा गया हो उसका परिवार सबूत सहित संपर्क
करे। उसे सम्मानित किया जाएगा। खाने का न्यौता भी। ईनाम-इकराम भी दिया जाएगा और आने-जाने
का रेल के फर्स्ट क्लास के बराबर किराया भी।
रियल लाइफ में प्राण
साहब बहुत नेक और परोपकारी शख्स थे। उनके द्वारे पर मदद के लिए आया कोई शख्स खाली हाथ
वापस नहीं गया।
प्राण साहब को बेइन्साफ़ी
कतई नापसंद थी। १९७३ में 'बेईमान फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड
मिला। लेकिन उन्होंने लेने से मना कर दिया। क्योंकि उनका मानना था कि बेस्ट म्यूजिक
डायरेक्टर का अवार्ड 'बेईमान' में शंकर-जयकिशन को नहीं बल्कि 'पाकीज़ा' के लिये गुलाम मोहम्मद
को मिलना चाहिए।
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