Sunday, June 7, 2015

जाने कब चाचा 'चाचू' और नाना 'नानू' बन गए?

-वीर विनोद छाबड़ा
नॉस्टैल्जिक हैं हम। अक्सर अतीत में विचरते हैं और जाने कब वर्तमान में आ गिरते हैं। अब कल ही बात लीजिये। किसी ने कह दिया - दद्दू, ज़रा ध्यान से चला करो। एक्सीडेंट हो जायेगा। कुछ बचेगा नही।
दद्दू शब्द सुनते ही हम पचास-पचपन साल पीछे चले जाते हैं। फ्लैशबैक शुरू
मां-बाप को माताजी-पिताजी कहते हैं। लखनऊ शहर के नक्खास का इलाका है। आस-पड़ोस में रहने वालों में कोई आपा तो कोई फूफी। उम्रदराज़ महिला को अम्मी/अम्मा। खाला-खालू और अब्बू/अब्बा नाम भी अक्सर कानों में पड़ते।
 
पचास के दशक मध्य में आलमबाग के चन्दर नगर इलाके में आ बसे। यहां सब पंजाबी मिले। अड़ोस-पड़ोस से रिश्ता मासीजी और चाचाजी का रहा। थोड़ी दूर  मां के बड़े भाई हैं। माताजी ने परिचय कराया - ये तुम्हारी मामी हैं और ये मामा।
हमारे दादा-दादी और बाकी तमाम रिश्तेदार दिल्ली में हैं। दादा को लालाजी और दादी को भाभीजी पुकाराते हैं। लाला जी के माताजी-पिताजी भी हैं। उन्हें सब अम्मां-बाबाजी कहते हैं।
पचास के मध्य में चाचा की दिल्ली में शादी होती है। चाची बीए पास है। सरकारी स्कूल में मास्टरनी है। बड़ी कड़क है। उन्हें चाचीजी सुनना अटपटा लगा। नए ज़माने की जो है। बोलीं - आंटी बोला कर। दिल्ली बहुत अडवांस है। यहां सब अंकल और आंटी हैं। 
हम चाची का कड़क फरमान सुन सहम गए। हम बच्चों ने उनका नाम रख दिया - भूचाल आंटी। तब से मृत्युपर्यंत वो हमारी आंटी रही। चाची वाला प्यार नहीं मिला। दूसरे चाचा जी भी आंटी ब्याह लाये, चाची नहीं। हमने सुना कि ये आंटी कल्चर बड़े लोगों की देन है जिसे मिडल क्लास अपना कर प्रफुल्लित होता है। और कहीं-कहीं उच्चीकृत महसूस कर सीना भी फुलाता है। 
१९६२ हम चारबाग़ शिफ्ट हो गए। यहां  बिलकुल अलग कल्चर मिला। आस-पास पंजाबी नहीं अपितु ठेठ यूपी के रीति-रिवाज़ों में तर बंदे देखे। कुछ दिन तक अजीब लगा। लेकिन जब पता चला कि यहां चाची और चाचा का चलन हैं तो सब अपने लगे। एक मुद्दत से चाची कहने की अरज़ पूरी हुई।
हमारे घर के नीचे फ्लैट में श्रीवास्तव फैमिली है। बच्चे मां को जिया कहते हैं। नाते रिश्तेदारों को भी जिया कहते सुनता हूं। आस-पास के छोटे-बड़े भी उन्हें जिया ही कहते हैं। उसमें हम भी हैं। कुछ दिन बाद पता चला कि जिया तो बड़ी बहन को कहते हैं। फिर सुना कहीं-कहीं मां को जिया कहने का रिवाज़ भी है।

बुआ और मासी के 'उनको' यानि फूफा और मौसा को हमारे परिवार में न जाने क्यों 'भाईजी' बोला जाता है। बड़ा अटपटा लगा कि फुफड़/फूफा और मासड़/मौसा क्यों नहीं कहा गया। हम ज़िंदगी भर उन्हें रिश्ते के नाम से संबोधित करने के लिए तड़पते रहे।
जब हम साइकिल से स्कूल आने-जाने लगे तो लगा कि हम पर्याप्त बड़े हो गए हैं। तबसे आज तक हमने आंटियों को छोड़ दें तो रिश्तों को उनके नाम से  पुकारा। अर्थात बुआ को बुआ ही कहा। मासी को आंटी नहीं बोला। जीजा को जीजू कह कर बिगाड़ा नहीं। ये बात दूसरी है कि पिताजी चूंकि परिवार में बड़े थे अतः किसी को ताऊजी-ताईजी कहने के सुख से वंचित रहे।
हम स्कूल में पढ़ते हैं। एक दिन हमने अपने एक मित्र का पिताजी का परिचय कराया - ये मेरे 'फादर' हैं।
पिताजी बेहद नाराज़ हुए- पिताजी कहने में शर्म आती है।
फिर दूरदर्शन पर रामानंद सागर की रामायण का दौर आया। उसने रिश्तों में श्री लगाना शुरू कर दिया। पिताश्री, माताश्री, भ्राताश्री आदि।  
पिछले १५-२० सालों से बहुत कुछ बदला है। अब रिश्तों के नाम बदल गए हैं। मां मम्मी से मॉम और पिताजी डैडी/डैड से पापा और अब पापू/पॉप। दादा से दादू और नाना से नानू। दादी और नानी क्रमशः ग्रेमी/ग्रैनी  हैं। सारी की सारी चाचियाँ, मामियां, बुआ और मौसियां आंटियां हैं। जीजा>जीजू, चाचा>चाचू और मामा>मामू में न जाने कब चुपके से परिवर्तित हो गए।
कुछ महीने पहले एक सीरियल देखा था - जमाई राजा। नानी को नायिका 'सेक्सी' कह रही थी। हे राम!

लेकिन कोई हल्ला गुल्ला नही। विरोध नही। दोनों पक्षों को मज़ा आ रहा है। भई, परिवर्तन की आंधी है। भली लग रही है.....
पर हम-आप क्यों जल रहे हैं? संस्कृति? व्हाट इज़ दिस? यू बैकवर्ड कहीं के!
हम भी सोचते हैं कि जाने भी दो यारों। क्या रखा है नाम में? फिर हर पीढ़ी का वर्तमान होता है। आज की पीढ़ी का भी वर्तमान है। इन्हें भी अपनी ज़िंदगी जीने का हक़ है। हम क्यों रोकें? क्यों निंदा करें?  
तर्क ये भी है कि चाचू-नानू कहने से रिश्तों में चाशनी घुल गयी है। खुश्क और ऑपचौरिक नहीं रहे।
बाज़ार में भी सब्ज़ी/रिक्शा/ऑटो वाला और मज़दूर मिस्त्री तक कबसे सवारी/ग्राहक को आंटीजी और अंकलजी कह रहे है।
कोई मांजी या बाबाजी कहे तो बहुत ख़राब लगता है। तबियत करती है कि लगाऊं घुमा कर एक ज़न्नाटेदार चांटा।
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०७-०६-२०१५ मो. ७५०५६६३६२६

डी-२२९० इंदिरा नगर लखनऊ

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