-वीर विनोद छाबड़ा
मुझे
याद है हमारे घर में मिर्च, धनिया आदि मसाला कूटने के लिए लोहे का इमाम-दस्ता, पुदीने की चटनी के लिए पत्थर की दौरी और लकड़ी
का सोटा, सिल-
बट्टा, गेहूं-चावल
आदि अनाज में से धूल और छोटे-मोटे कंकड़ छानने वाली किसिम-किसिम की छाननियां आदि तमाम
घरेलू उपकरण मौजूद होते थे। यह महज़ उपकरण ही नहीं थे। संस्कृति का हिस्सा थे, सांझी विरासत थी। हमारे खानदान में पुश्तों
से इन उपकरणों के रखने का रिवाज़ चला आ रहा था। याद पड़ता है इनमें कुछ उपकरण तो दहेज़
में भी दिए जाते थे।
ये विरासत
मेरी दादी और फिर मेरी मां ने बड़े दिल से सहेजते हुए अगली पीढ़ी को सौंपी। इन मामलों
में मेरी मां पर उनकी मां यानि मेरी नानी का भी खास असर रहा।
जिनके
पास ये उपकरण नहीं होते थे तो वो हमसे मांग कर इन्हें ले जाते। बड़ी ख़ुशी से आदान-प्रदान
होता। इसी बहाने पता चल जाता कि अगले के घर आज क्या कुटने जा रहा है। साथ ही आधे घंटे
खड़े-खड़े बुकराती हो जाती। एक-दूसरे का दुःख सुख पता चल जाता। उस ज़माने में इंटरनेट
ख्याल में नहीं था। लेकिन बाज़ महिलाएं इंटरनेट से भी तेज समाचार देतीं थीं। किसी खबर
को फैलाना हो तो छाननी वापस करने आई पड़ोसन को बस कह भर दीजिये कि अपने दिल में रखना।
शाम तक पूरे मोहल्ले को खबर हो जाती।
बहरहाल, कई आइटम तो अगले के पास से निकल कर दूसरे, तीसरे…जाने कहां से कहां निकल जाते।
जब हमें
ज़रूरत पड़ती थी तो पता चलता था कि शहर के दूसरे कोने में चला गया है हमारा सामान। यह
जान कर मेरी मां गर्व से फूल कर कुप्पा हो जाती - हाय देखो, कहां-कहां काम आ रहा है अपने घर का इमाम-दस्ता।
हमारी
मां विजई मुस्कान के साथ अपना सामान बटोरते हुए आश्वासन देती थी दोबारा ज़रूरत हो तो
फिर ले लेना। साथ ही गलगलान होते हुए ये बताना भी नहीं भूलती थी कि हमारे घर में और
कौन-कौन से घरेलू उपकरण हैं। क्रॉकरी और पीतल के ढेर बड़े बर्तनों की पूरी फ़ेहरिस्त
भी थमा आती।
उन दिनों
नॉन-वेज के लिए बर्तन अलग होते थे। इन्हें आंगन के कोने में या छत की मियानी में रखा
जाता था। इसे भी बाज़ पडोसी शेयर करते थे।
एक बार
मां का पड़ोसन से अंगीठी जलाने के स्थान को लेकर झगड़ा हो गया।
इत्तिफ़ाक़
से उसी दिन पड़ोसन के घर ख़ास मेहमान आये।
मां को
पता चला तो फौरन हम बच्चों के हाथ कुछ क्रॉकरी और बर्तन भिजवा दिए।
दरअसल, मां को मालूम था कि पड़ोसन की रसोई में कितने
आइटम हैं। उसे फ़िक्र थी कि ख़ास मेहमान के सामने पड़ोसन को शर्मिंदा न होना पड़े।
लाख मन-मुटाव
के बावजूद दुःख-सुख सांझे होते थे। न कोई दुराव था और न कोई छुपाव। सबकी ज़िंदगी खुली
किताब थी।
इस सिलसिले
में एक किस्सा बताऊं। हमारा इमाम-दस्ता पड़ोसन के घर गया। हफ्ता गुज़रा। फिर दस दिन।
सुबह मांगे तो शाम को देंगे। शाम को मांगा तो सुबह पर टरका दिया। देने का नाम नहीं।
यों खा जाने वाली निगाहों से देखते जैसे अपनी नहीं उनका खज़ाना मांग रहे हों। होते-होते
दो महीने हो गए। हमने जासूसी शुरू की। पता चला वो पंद्रह किलोमीटर दूर उनके किसी रिश्तेदार
के रिश्तेदार और फिर उनके रिश्तेदार के रिश्तेदार घर पर इस्तेमाल हो रहा था। बामुश्किल
लड़-झगड़ कर वापस लाये। पडोसी नाराज़ अलग से हुए - इतनी भी क्या जल्दी थी। अरे मिल जाता।
कोई भागा जा रहा था क्या?
खुद का
खरीदा होता तो छोड़ देते। हमने कई आइटम 'गिफ्ट कर दिए' समझ कर भुला दिए हैं। लेकिन इमाम-दस्ता ख़ानदानी विरासत था। बड़े जतन से संभाल कर
रखा था। लेकिन अब यह सब इस्तेमाल नहीं होते। मिक्सी-ग्राइंडर-जूसर ने सबको एंटीक आइटम
बना दिया है। हां, एक आइटम है अब भी कभी-कभी उधार जाता है - अचार के लिए आम काटने वाला ख़ास चाकू।
सुना
है कहीं-कहीं तंदूर भी साझे पर चल रहे हैं।
हमारी
यह साझी संस्कृति अब कहीं खो गयी है।
आज हालत
ये हैं कि हम या पड़ोसी टमाटर/प्याज़ आदि सब्जी भी लाते हैं तो छुपा कर। कहीं ऐसा न हो
कि सुबह-सुबह ठाकुर साहब के ठकुराईन आ धमकें - तनिक एक ठो निबुआ तो दीजिये। ठाकुर साहेब
का दिल नीबू की चाय पीने को कर रहा है।
और तो
और कुछ लोग रसोई का एग्जॉस्ट बंद कर देते हैं ताकि पड़ोस में नॉन-वेज़ की महक न पहुंच
जाये।
अब और
क्या क्या बताऊं? अपने पुरखों का ज़माना याद करते हुए वर्तमान से तुलना करता हूं तो 'आज' पर शर्म आती है।
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12-06-2015 mob. 7505663626
vir vinod chhabra
D-2290 Indira Nagar Lucknow-226016
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