Wednesday, June 24, 2015

अथ श्री इमरजेंसी कथा!

-वीर विनोद छाबड़ा
देश में इमर्जेंसी लागू होने के दिन मैं दिल्ली में था।
सुबह के अख़बार आधे ब्लैंक थे। विपक्ष के तमाम नेता जेल भेज दिए गए। दिन भर शहर घूमता रहा। डर का वातावरण व्याप्त था। किसे शक़ के आधार पर बंद कर दिया जाए।
शाम गंगा-जमुना से लखनऊ लौटना हुआ। उस दिन ट्रेन राइट टाइम चली। कुछ नौजवान बहुत इंदिराजी और संजय गांधी को लेकर चिल्ल-पों कर रहे थे।

गाज़ियाबाद पर ट्रेन रुकी। कुछ पुलिस वाले आये। नौजवानों को घेर लिया। ज्यादातर ने माफ़ी मांग ली। लेकिन दो धर लिए गए। मैं भी डर गया था। शुक्र था कि मेरी सीट उनसे हट कर थी। मेरी नई-नई सरकारी नौकरी थी। अंदर हुए नहीं कि गयी नौकरी।
सुबह टाइम पर ट्रेन लखनऊ पहुंची। यह ट्रेन का टाइम पर छूटना और फिर टाइम पर पहुंचना ज़रूर सुखद आश्चर्य था।
फटाफट नहा-धोकर टाइम पर दफ्तर पहुंचा तो अटेंडेंस १००% थी। यह एक और घोर और सुखद आश्चर्य था। इमर्जेंसी की जम कर धज्जियां उड़ाई जा रहीं थीं। मैं तो डररहा था। न जाने कोई एलआईयू का आदमी जासूसी कर रहा हो।
अफवाहों का बाज़ार खूब गरम था। हम लोग कमरा अंदर से बंद कर चटकारे ले ले कर सुनते और बहस करते थे।
इमर्जेंसी के दौरान बाबू सबसे दुखी प्राणी था। उसे रोज़ के रोज़ काम करके देना होता था। एरियर क्लीयरेंस ड्राइव चलाये गए। कई छुट्टियों में दफ़्तर आना पड़ा।
कइयों की पत्नियों ने हथियार डाल दिए - हमसे नहीं बनता इत्ती जल्दी खाना। खुद बनाओ या जाओ भूखे।
मैं खुद कई बार बिना नाश्ता-पानी के ऑफिस आया। मां इधर-उधर की बातें करने बैठ जाती। मैं बिगड़ता था तो कहती - शादी कर दूंगी तेरी।
मैं डर जाता। अभी तो मौज-मस्ती के दिन हैं। दोस्तों के साथ शिमला घूमने जाना है। यों भी पत्नी वाले दोस्तों को खुश नहीं देखता था। हमारे साथ न फ़िल्म देखें और न हज़रतगंज घूम पाते।
एक दिन ऑफिस में फ़रमान आया - नसबंदी कराओ। नहीं तो इन्क्रीमेंट नहीं मिलेगा।
मैं परेशान - मेरी तो शादी ही नहीं हुई।
उदास हो गया। लगा कि गए काम से। मेरे साथ एक और भी मेरा जैसा था। दोनों मिल कर जुगाड़ ढूंढने लगे। लेकिन जल्दी साफ़ हो गया कि कुंवारे लोग बचे रहेंगे।
एक दिन क्या हुआ कि हम चार-पांच दोस्त रात के सन्नाटे में चारबाग इक्का-तांगा स्टैंड के पास खड़े सिगरेट पी रहे थे। गश्ती पुलिस ने घेर लिया। हमने विनती की कि हम मां-बाप से छुप कर सिगरेट पीते हैं, इसलिए इधर सन्नाटे में खड़े हैं। इंस्पेक्टर शरीफ़ था। हंसने लगा। फिर अचानक उसने पैंतरा बदला और गुस्से में बोला -  कल से यहां दिखना नहीं। मीसा में अंदर कर दूंगा। 
जब तक इमर्जेंसी का आतंक रहा पुलिसवाले को देखते ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती। नाईट-शो का शौक भी छोड़ दिया।
एक दिन हमने सत्ता को चुनौती देती फिल्मों पर ज़बरदस्त लेख लिखा - जिन्हें नाज़ था हिंद पर वो कहां हैं?

लौटती डाक से रचना संपादक जी की इस टिप्पणी के साथ आ गयी- मेरा मैगज़ीन बंद कराओगे क्या?
चलिए वो इमरजेंसी तो जैसे-तैसे खत्म हो गई। मगर याद रोज़ाना आती है, जब पत्नी पूछती है - कहां जा रहे हो? क्यों जा रहे हो? वहां क्या काम? और कौन-कौन आएगा वहां? चंदा लगेगा या फ्री में है खाना? क्या मिलेगा खाने में ? कब तक घर आओगे? वगैरह वगैरह बीसियों सवाल। हमने सुना है इमरजेंसी में बंद लोगों से ज़ालिम पुलिस ने भी इतने सवाल नहीं पूछे थे। 

२५-०६-२०१५ 

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