-वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माने में हम भी
जवां थे। शौक अमीरों वाले और जेब में अधन्ना भी नहीं। मन मसोस कर रह जाते। सोचते थे
जब नौकरी करेंगे तो सबसे पहले सारे शौक पूरे करेंगे।
हां एक सिनेमा का शौक
ऐसा था, जिसे हम कभी कल के लिए टाल नहीं सके। शौक भी कोई ऐसा-वैसा नहीं
था।
पक्के पिक्चरबाज़ थे। नई फिल्म तो शायद कोई छूटती हो। बढ़िया फिल्म तो दुबारा-तिबारा
भी हो जाती थी। हॉफरेट पर पुरानी फिल्म भी देखना ज़रूरी ताकि जानकारी हो सके कि पुरखे
क्या करते थे हमारे। महीने में १०-१५ फिल्मे तो मामूली बात थी। यों हमारा आलटाइम रिकॉर्ड
२८ के महीने में ३३ फिल्मों का था। पिक्चरबाज़ों की महफ़िल में हमारा ये रिकॉर्ड तो बौना
था। पचास-साठ फ़िल्में देखने वाले तो भरे पड़े थे।
जेब खर्च के नाम पर
महीने में दस रूपए। यह बात १९६६-६७ की है। इतने में तो तीन-चार फ़िल्में ही हो पाती।
पेन-पेंसिल, मैगज़ीन और दूसरी छोटी-मोटी ज़रूरतों का भी इसी जेब खर्च से इंतज़ाम
करना होता था। जैसे हम, वैसे ही दोस्त। सब के सब फक्कड़।
आवश्यकता अविष्कार
की जननी। हमें कागज़ के लिफ़ाफ़े बनाने की कला आती थी। बचपन में सीखी थी, अपने एक सिंधी पड़ोसी
से। तब हम आलमबाग की चंदर नगर मार्किट में रहते थे। बदले में वो हमें दो पैसे देता
था।
आवश्यकता ने हमें इस
कला को अपनाने पर मजबूर कर दिया। इसे हमने निखारा भी। यहियागंज से पुरानी टेलीफोन डायरेक्टरी
और रेलवे टाईमटेबल की रद्दी ले आते। इसके लिफ़ाफ़े मज़बूत माने जाते थे। मैदे की लेई और
ज़रा सा तूतिया। ताकि लेई के चक्कर में चूहे न काट जायें लिफ़ाफ़ो को।
यह काम हम तभी करते
जब पिताजी घर पर नही होते थे। लिफ़ाफ़े बनाने में हमारी स्पीड देखने लायक होती। एक-दो
घंटे में हम इतने लिफ़ाफ़े तैयार कर लेते कि चार-पांच फ़िल्मों का पैसा निकल आता। इसी
से कभी-कभी अपने मित्रों की बहनों के ब्याह के लिए गिफ़्ट भी खरीदने का इंतज़ाम भी करते।
चारबाग़ की गुरुनानक मार्किट में जेटामल सिंधी हमारे लिफाफों का खरीददार था। यह दुकान
दोपहर बाद खुलती और रात १२ के बाद बंद होती थी। कई बार आर्डर पर बांसी पेपर के लिफ़ाफ़े
भी बनाये। कभी कभी लेखन से भी पच्चीस-तीस रुपए मिल जाते। १९७४ में जब हमें नौकरी मिल
गई तो लिफ़ाफ़े यह काम छोड़ दिया।
इधर पिछले २५ साल से
पॉलिथीन बैग्स ने कागज़ के लिफ़ाफ़े लगभग चलन से बाहर कर रखे हैं। लेकिन जैसे-जैसे पॉलिथीन
के खतरों के प्रति जागरूकता बढ़ रही है कागज़ के लिफ़ाफ़े फिर दिखने लगे हैं। अब चूंकि
हम पुराने लिफ़ाफ़ेबाज़ हैं। इसलिए कागज़ के लिफ़ाफ़े को बड़ी गौर से देखते हैं। ज्यादातर
अखबारी कागज़ इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए मज़बूती नहीं है और बनाने की क्वालिटी भी घटिया
है। लिफ़ाफ़े नीचे से खुल जाते हैं।
कभी-कभी दिल में ख्याल
आता है कि चलो एक बार फिर.…देखते हैं अभी तो पावर एम्प्लाइज ट्रस्ट से जैसे-तैसे पेंशन
मिल रही है। जब नहीं होगा तो देखा जायेगी। बाजुओं में दम है अभी। एक मित्र को आईडिया
बताया तो उसने मुंह बिचका लिया।
हमने कहा
- काम कोई भी बुरा नहीं। बस क्वालिटी और ईमानदारी होनी चाहिए। हमने तो सुबह-शाम दूध-डबलरोटी-अंडा
बेचने वालों को भी पनपते देखा है।-----
29-06-2015 mob 7505663626
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