-वीर विनोद छाबड़ा
मुझे
याद है कि सन 1971 में लखनऊ युनिवर्सटी के वाईस चांसलर के अलावा पोलिटिकल साईंस डिपार्टमेंट के हेड
प्रोफेसर पी.एन. मसालदान साहब ही सिर्फ़ कार से चलते थे। कभी कभी डॉ जे.सी. शर्मा जी
भी कार का प्रयोग करते थे। जहां तक याद है वे खुद ड्राइव करते थे।
बाकी
रीडर्स और लेक्चरार रिक्शा या साईकिल के सहारे थे। यूनिवर्सटी के बाकी डिपार्टमेंट्स
में हालात कुछ बेहतर थे। प्रोफ़ेसरों के अलावा कुछ अमीर स्टूडेंट्स की भी कार वाली हैसियत
थी। और वो यदा-कदा कार से ही यूनिवर्सिटी आते थे।
मेरी
एक क्लासमेट भी काली अंबेस्डर कार से आती थी। वो लखनऊ के एक रईस इलाके में रहती थी।
उनके भाई नामी व्यवसाई थे। कई संस्थाओं में प्रेजिडेंट भी थे। उसकी कार में एक अदद
छोटी बहन और उसी के मोहल्ले में रहने वाली एक-दो क्लासमेटनें भी अक्सर उसी में लदी-ठूसी
होती थीं।
मुझे
उससे दोस्ती की बड़ी ललक रहती थी। इसकी वज़ह उसकी कार थी। ऐसा नहीं था कि मैं कभी कार
में बैठा नहीं था। क्लासमेट की कार में बैठने का नशा तो दूसरा होता है।
जल्दी
ही उससे दोस्ती की हसरत पूरी हुई। उसकी चमचागिरी में भी कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी। मगर
फिर भी उसकी कार की सवारी का सुख कभी नसीब न हुआ। होता भी तो कैसे? कार हमेशा फुल्ल रहती। और फिर रास्ते ही जुदा
थे। कहां साइकिल और कहां कार! हंसी-मज़ाक में भी उसका अपर हैंड रहता जब वो कहती कि पीट
दूंगी। यह तकिया कलाम भी था उसका। हम सब सब हंस देते। वो अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी
थी। राखी वाले दिन यूनिवर्सिटी बंद रहती थी। मगर अगले दिन हम लोग उससे बच नहीं सकते
थे। मुखबरी भी खूब चलती थी।
एक बार
यूनिवर्सिटी के गेट पर उसकी कार पंक्चर हो गयी। सब लड़कियां बेचारगी की मुद्रा में बाहर
खड़ी गई। ड्राइवर पहिया बदलने में जुटा था। हम पांच दोस्त उधर से गुज़रे। जब अपने पास
न हो और दूसरे के पास हो तो उसे परेशान देखकर मज़ा आता है। शायद यही वज़ह थी कि यह दृश्य
देख कर हम सब को हंसी आ गयी। और महबूब प्रोडक्शन का यह शेर भी याद आ गया-
क्या
हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक़
नशीनों की ठोकर पे ज़माना है।
कहा तो
धीमे से था मगर उसने सुन लिया। हो सकता है कि मुखबरी भी हुई हो। दूसरे दिन मैं यूनिवर्सिटी
पहुंचा तो पता चला कि उस शेर की वज़ह से वो मुझसे सख़्त नाराज है। मित्रों की मदद से
कई दिनों बाद बामुश्किल मनाया था उसे।
कुछ दिनों
बाद उसकी शादी हो गयी। हम सब गिफ्ट लेकर गए। मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया…का रिकॉर्ड बार बार बज रहा था।
हम सब
एक दूसरे की और इशारा कर खुश हो रहे थे। और इसके साथ ही उसकी कार में बैठने का सपना
भी टूट गया।
चालीस
साल हो गए।
बड़े अच्छे
घर ब्याही थी। ज़रूर एक नहीं दर्ज़न भर महँगी कारों की मालकिन होगी।
न जाने
कहां होगी वो? लेकिन
जहां भी हो सुखी रहे। यही कामना करता हूं।
बड़ी इच्छा
होती है कि उसे तलाश करूं। मिलूं और बताऊं कि देखो अब हम सबके पास भी एक अदद कार है, छोटी ही सही और फिर हम दोनों पुरानी बातें
याद करके खूब हंसें।
अतीत
सच होने के बावज़ूद एक खूबसूरत ख़्वाब सा लगता है।
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१०-०६-२०१५
मो.७५०५६६३६२६
डी-२२९०
इंदिरा नगर लखनऊ-२२६०१६
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