-वीर विनोद छाबड़ा
सत्तर
के दशक के शुरुआती वर्ष। उन दिनों दिल्ली की तमाम फ़िल्मी पत्रिकाओं में यदा-कदा कहानियां/लेख
लिखता था।
मुफ़लिसी
के दौर के बावजूद बड़ी मज़ेदार ज़िंदगी थी।
किसी
न किसी वज़ह से दिल्ली अक्सर आना-जाना रहता था। पत्रिकाओं के दफ़तर का चक्कर भी लगता
था इस उम्मीद में कि मिलना-जुलना होगा ही पारिश्रमिक भी मिल जाएगा ।
इसी बहाने
दो-तीन तो बहुत अच्छे मित्र बन गए। यह सब सहायक संपादक हुए करते थे। इन्हीं में एक
दिलचस्प सहायक संपादक थे।
कतिपय
कारणवश नाम इंगित नहीं कर रहा।
वो बहुत
अच्छे लेखक भी थे। मैंने उनकी कई कहानियां प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में पढ़ी थी। क्या बेबाक
और पैनी कलम थी। प्लाट भी मारक होते थे। आदमी भी दबंग थे। एक जगह रुका पारिश्रमिक भी
दिलवाया उन्होंने।
एक बार
उनसे मिलने पहुंचा। दोपहर करीब एक बजे का वक़्त रहा होगा। उनका ऑफिस भगीरथ पैलेस में
था। कश्मीरी गेट स्थित मिनर्वा पर 'ऐलान' (विनोद
मेहरा-रेखा-विनोद खन्ना) चल रही थी। मैंने मैटनी शो (३ से ६) का टिकट लिया। सोचा पहले
मित्र की भेंट करूंगा। तत्पश्चात फिल्म देखूंगा और फिर घर जाकर कुछ आराम करूंगा। उसी
रात मुझे वापस लखनऊ भी लौटना था।
मित्र
से मुलाक़ात हुई। दिल्ली वालों के रिवाज़ मुताबिक़ जफ्फी-शफ्फी डाल कर मिलना हुआ। चाय
एक लिए एक ढाबे पर गए। लंबी गपशप हुई। जाने क्या बात हुई कि मित्र को अपनी एक बहुत
पुरानी कहानी याद आ गयी। लगे सुनाने किस्सागोई वाले अंदाज़ में। वक़्त करीब पौने तीन
था।
जेब मई
सिनेमा का टिकट। चिंता शुरू हुई। मिनर्वा वहां से करीब पंद्रह मिनट का वॉक रहा होगा।
मैंने जल्दी से चाय ख़त्म की।
लेकिन
मित्र अपनी किस्सागोई में बुरी तरह डूबे थे। सुरसा की आंत की तरह उनकी कहानी बढ़ती ही
जा रही थी।
मैं बार-बार
टाइम देख रहा था। तीन बज चुका था।
अचानक
मित्र ने मेरे चेहरे पर कुछ पढ़ा। पूछा - कहीं
फिल्म देखने जाना है?
झिझक
के मारे मैंने कहा - नहीं, नहीं बिलकुल नहीं। मैं तो सिगरेट की तलाश में हूं।
मित्र
ने जेब से सिगरेट की डिब्बी निकल मेरे सामने रख दी। और फिर से अपनी कहानी की किस्सागोई
में खो गए।
मैंने
कनखियों से घड़ी देखी। साढ़े तीन बज रहा था। अब तो फिल्म शुरू हो चुकी होगी। ओखली में
सर दिया है तो मूसल का क्या डर। मैंने फिल्म देखने का ख़्याल पूरी तरह दिल से निकाला
और मित्र की किस्सागोई में पूरी तरह डूब गया। पता ही नहीं चला कि कब एक खत्म और दूसरी
शुरू।
इस बीच
मित्र ने चाय की प्याली कई बार उठाई। उसमें फूंक मार कर छोटा सा घूंट भरा - अभी बड़ी
गरम है। जबकि मैं मुद्दतों पहले अपनी चाय सुड़क चुका था।
उनकी
कहानियां दिलचस्प होती जा रही थी। मुझे भी कोई चिंता भी नहीं थी। शाम छह बजे तक का
टाइम था मेरे पास।
अक्टूबर
का महीना था। शाम जल्दी होने के दिन और हल्का गुलाबी जाड़ा। मित्र की किस्सागोई ख़त्म
होने का नाम भी नहीं ले रही थी।
एक बार
फिर चिंता होने लगी।
अचानक
मित्र को ख्याल आया। पूछा - देर हो रही है?
मैंने
कहा - हां, आज लखनऊ
लौटना है।
मित्र
को अपनी गलती का आभास हुआ - यार मेरी आदत है। कहानी को किस्से के अंदाज़ में सुनाता
हूं। ये कहते हुए उन्होंने करीब चार घंटे पहले की चाय को प्लेट में उड़ेला और दो-तीन
बार फूंका। फिर गटाक से पी गए - अभी भी गरम है।
क़सम से
मैंने उनके जैसा किस्सागो दोबारा नहीं देखा। अगर मुझे लखनऊ नहीं लौटना होता तो यह मुलाक़ात
यक़ीनन अभी और चलती।
मैंने
उनसे फिर मिलने का वादा करके चल दिया। कुछ ऐसे हालात बने कि मेरी उनसे दोबारा मुलाकात
नहीं हो पायी। अबकी दिल्ली गया तो उनसे ज़रूर मिलूंगा। तब तक पता करता हूं कहां है वो।
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