-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ यूनिवर्सिटी के हमारे
दिनों का दौर घटनाओं और मस्ती से भरपूर रहा। कुछ विरह और तड़पने के दिन भी रहे।
जब कभी फ़्लैश बैक में जाता
हूं तो एक-एक पल याद आता है। चित्त प्रसन्न होकर अंगड़ाइयां लेने लगता है। विरह के दिन
याद कर उदासी भी छा जाती। दो अश्क़ भी भीतर ही भीतर बहा लेता हूं। दोस्तों से मिलने
चल देता हूं। हाल-ए-दिल सुना लेता हूं। जी हल्का हो जाता है।
बात १९७१ से १९७३ के दरम्यान
की है। यों तो अनेक लड़कियां साथ में थीं। कई दोस्त थीं। मगर इनमें एक विलक्षण थी।
नहीं, नहीं। वैलेंटाइन
जैसी कोई बात नहीं थी। वो मुझसे तकरीबन एक फुट ऊंची रही होगी। चौड़ाई में मिनी एलीफैंट
से कम नहीं। इस डील-डॉल की वज़ह से ही वो एनसीसी की कमांडेंट थी।
उस पर तुर्रा ये कि वो
एक विधायक जी की लाड़ली बहिनजी। बात-चीत में काफ़ी कड़क और तल्ख़ । गुस्ताखी करने की तो
फ़रिश्ते भी न सोचें। विधायक निवास में उनका डेरा था। इन सब तथ्यों के मद्देनज़र अपनी
तरफ से तो कोई इश्क-विश्क जैसा एलिमेंट जन्म लेने की जुर्रत भी नहीं कर सकता था।
क्लास में उसकी हाज़िरी
यदा-कदा वाली थी। अतः वो किसी न किसी सब्जेक्ट पर नोट्स के सिलसिले में जब-तब हमें
अपने दौलतखाने पर याद फरमाती रहतीं। अब इस काम के लिए उन्होंने हमें ही क्यों चुना
था, यह हम आज तक नहीं जान पाये। अब लड़की बुलाये और हम न जायें यह
तो नारी जाति की तौहीन हुई न।
उस दिन क्या हुआ कि यूनिवर्सिटी
में वो हमें गेट नंबर एक के पास मिल गयीं। इशारे से बुलाया। उन दिनों बड़े लोगों का
हम जैसे फुकरों को बुलाने का यही अंदाज़ होता था। हम लपक के उनके पास पहुंचे।
सिचुएशन कुछ यों थी। उनका
लहीम-शहीम कद। हम एक फुट नीचे। बात करते हुए उनकी नज़रें झुकी-झुकी और हमारी उठीं हुईं।
हमें कुछ अटपटा लगा। आजू-बाजू
देखा। पास ही में एक ईंट दिखी। पैर से धीरे-धीरे उसे अपने पास खिसका लिया। और उस पैर
रख कर खड़े हो गए। अब हम दोनों नज़रें मिला कर बात करने की स्थिति में लगभग आ गए।
आने-जाने वाले ये नज़ारा
देख मंद-मंद मुस्कुराये बिना नहीं रह पाये। लेकिन कोई कमेंट नहीं। किसी को क्या मतलब?
तभी हमारे एक अज़ीज़ मित्र
उधर से गुज़रे। इस मुद्रा में हमें देख कंट्रोल नहीं कर पाये। जोर से खिलाखिलाए ही नही
बल्कि छींटा भी कसा - हॉय जोकर!
हमने तनिक झेंप कर हाथ
हिला दिया।
लेकिन वो मिनी हथिनी यानी
एनसीसी कमांडेंट बर्दाश्त नहीं कर पायी। गुस्से से लाल-पीली होकर और भी फूल गयी।
हमने कहा - जाने दीजिये।
नादान है।
मगर वो बख़्शने के मूड में
नहीं थी। हमारे उस मित्र को इशारे से बुलाया।
मित्र लपलपाते हुए आये।
इस उम्मीद में कि सरकार कोई ईनाम या तमगा देगी।
वो नज़दीक आये, हमारे ज़माने की
उस लेडी दारासिंह हसीना ने उन्हें बाआवाज़-ए-बुलंद घुड़का - क्या कहा था जोकर! अबे, इतने जूते मारूंगी
कि अगली सात पुश्तें गंजी पैदा होंगी।
अभी वो आगे कुछ और तिया-पांचा
करती कि हमने हाथ जोड़ कर उन्हें रोक दिया- ये हमारे मित्र हैं। हम एक दूसरे से इसी
बिंदास अंदाज़ में मज़ाक करते रहते हैं।
बड़ी मुश्किल से वो मानी।
पसीना पसीना हो चुके हमारी जान में जान आई।
लगभग ४३ बरस हो गए हैं।
वो मोहतरमा जाने कहां हैं? अपने उस मित्र से कभी-कभी
मुलाक़ात होती है। किस्सा याद कर हम खूब हंसते हैं।
त्रासदी यह है कि हमारे
सर के बाल लगभग गायब हैं परंतु मित्र के पूरे के पूरे हैं। काले रोगन से तर। अपनी मार्किट
अभी ज़िंदा रखे हैं।
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16-06-2016 mob 7505663626
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Loved it sir :)
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