-वीर विनोद छाबड़ा
रक्षा बंधन के दिन आते ही यूनिवर्सिटी के दिनों की याद आती है। माहौल में डरावनापन
और अनिश्चतता रहती थी। दिल धक धक करता होता
था। ऐसा न हो कि जिस पर लाईन मार रहे हैं, वो राखी बांध कर ट्रेन को डी-रेल न कर दे।
एक सहपाठिनी ने मुझे बता रखा था कि उसके पर्स में हर वक़्त दो-तीन राखियां रहती
हैं। किसी ने बुरी नज़र डाली नहीं कि कलाई पर राखी बंधी। और अगला यही कहने पर मज़बूर
हो जाता था - फूलों का तारों का सबका कहना है एक हज़ारों में मेरी बहना है।
हो सकता है वो मुझे डराने और अपने दूर रहने का ईशारा करती हो। मैं भी दूर-दूर रहने
का प्रयास करता था।
लेकिन वो थी कि जैसे ही मुझे देखती लपक कर आ जाती। हाऊ आर यू?
फिर पिंड छुड़ाना पड़ता। एक बार तो झल्ला कर हाथ आगे ही बढ़ा दिया। ले बांध ले राखी।
कर ले पूरे अपने अरमान। बहना ने भाई की कलाई पर पे प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से
संसार बांधा है, रेशम की डोरी से संसार बांधा है.…
लेकिन वो ही-ही कर के यह कहते हुए निकल लेती। नहीं, जिस दिन हद पार की, उस दिन।
हे भगवान। अजीब पहेली नुमा लड़की।
यूनिवर्सिटी में पढाई ख़त्म हुई। आख़िरी दिन वो दिखी नहीं। जाने कहां चली गई?
कई साल गुज़र गए।
एक दिन ऑफिस में फ़ोन आया। बहुत दिमाग ख़राब है। इधर-उधर बहुत देखते हो। पकड़ कर अंदर
कर दूंगी। पुलिस वाली हूं।
मैं बहुत घबराया। पसीना-पसीना हो गया। बाल-बच्चों वाला शरीफ़ आदमी। नौकरी पर भी
खतरा दिखने लगा। मैं देखिये बहन जी.…सुनिए बहन जी करता रहा।
और वो मुझे हड़काती रही। फिर वो अचानक बड़ी ज़ोर से हंसी। बुद्धू, मैं.… वही पर्स में राखी
रखने वाली बोल रही हूं। तुम जैसों को सबक सिखाने के लिए पुलिस इंस्पेक्टर बनना पड़ा।
मैंने राहत की लंबी और गहरी सांस ली। मुझे हैरत हुई। मेरा पता कहां से मिला?
अरे भाई कहा न पुलिस वाली हूं। कोई छुप सकता हैं मुझसे। आकाश-पाताल और धरती कहीं
से भी ढूंढ़ निकालूंगी।
काफी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। उसने मेरे परिवार के बारे में जानकारी
ली।
मैंने उसके परिवार के बारे में पूछा। उदास हो गयी। तुम जैसे भाइयों ने ध्यान ही
नहीं रखा। कैसे होती शादी?
मैंने पूछा, कहां हो तुम?
वो बोली, मिलूंगी जल्दी ही। फिर ज़ोर से हंसी। रक्षा बंधन आने वाला है न। तुम्हारे घर आऊंगी।
पहचान लोगे न। अब मैं पहले जैसी दुबली पतली नहीं रही। मोटी-काली भैंस दिखती हूं।
मैंने कहा, मैं भी लगभग गंजू पटेल हूं। लेकिन वर्दी पहन कर नहीं आना।
पत्नी और बच्चे डर जायेंगे। कहा था इधर-उधर मत देखा करो। आख़िर पुलिस पकड़ने आ ही
गयी।
मोहल्ले वाले भी मुफ़्त का मनोरंजन देखने जमा हो जायेंगे।
आज दस साल हो गए। वो आई नहीं। हर रक्षा बंधन के दिन इंतज़ार रहता है। जाने कहां
गयी? पुलिस वाली है। इन्क्वायरी करते हुए भी डर लगता है। न इनकी दोस्ती अच्छी, न इनकी दुश्मनी।
नोट - आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना।
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28-08-2015 mob 7505663626
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