-वीर विनोद छाबड़ा
उनका नाम था मैडम डिकोस्टा। यह असल नाम
नहीं है। दरअसल, हालात पहले जैसे खुशगवार नहीं हैं।
मैडम डिकोस्टा मुझसे चार-पांच साल बड़ी
थीं। जब हमने बिजली बोर्ड में नौकरी शुरू की तो वो पहले से वहां मौजूद थीं। काफी सीनियर।
बिंदास अंदाज़। मगर एक कम्पीटीशन में हम पास होकर उनसे आगे निकल गए।
वो जूनियर हो गयीं
और बंदा सीनियर। उन्होंने शेकहैंड करके मुबारक बाद दी। हमने उन्हें शुक्रिया कहा। कभी-कभी
बात होती थी। लेकिन हाय, हेलो तक सीमित।
अपने बिंदास अंदाज़ के कारण वो बहुत मशहूर
थीं। स्वाभाविक है कि चाहने वालों की फहरिस्त भी लंबी होनी थी। लेकिन क्या मज़ाल कि
कोई उल्टा-सीधा कमेंट कर यूं ही बिना प्रसाद प्राप्त किये निकल जाए। लिहाज़ा ख़ौफ़ भी
था उनका।
उम्र के तकाज़े के कारण हम उनसे खुल नहीं
पाये। कर्मचारी संघ में उनका काफी दख़ल देखा।
भाग्य के चक्र ने कुछ ऐसा गुल खिलाया
कि उनके कैरियर के आखिरी एक-डेढ़ साल हमारे अधीन कटे।
वो सेक्शन ऑफिसर और हम डिप्युटी सेक्रेटरी।
धीरे-धीरे दोनों खुलने लगे। हंसी-मज़ाक शुरू हो गया। बिलकुल बिंदास। न उनके दिल में
मैल और न हमारे।
मैडम डिकोस्टा कभी किसी उम्रदराज़ से
बात करती दिखतीं तो हम चुटकी लेते - कहां गुज़रे ज़माने से रुबरु हैं। इधर देखिये। माशाल्लाह
अभी काफी उम्र बची है। देखने में इतने बुरे भी नहीं।
वो ज़ोर से हंस देतीं। मगर कल के लिए
कुछ नहीं छोड़ती थीं। पलट कर कहतीं - न खंजर उठेगा और न तलवार इनसे, ये बाज़ू मेरे आजमाए हुए
हैं।
मज़े की बात ये है कि इस नज़ारे को देखने
वालों और बातचीत सुनने वालों को कभी कोई ऐतराज़ भी नहीं हुआ। सब जानते थे वो क्या हैं
और हम क्या हैं।
हम अपने काम-काज में बड़ी मेहनत करते
थे। लिहाज़ा कामचोर पसंद नहीं थे। अधीनस्थों को भी जम कर काम करना पड़ता था और इमरजेंसी
को छोड़ कर पांच बजे से पहले ऑफिस छोड़ना सख्त नापसंद करते थे।
मैडम डिकोस्टा को रही पांच बजे की चाय
घर पर पीने की आदत। हमारे रहते इसे उन्हें बंद करना पड़ा। अर्जेंसी के दृष्टिगत कई बार
शाम देर तक रुकना भी पड़ा। बस यही एक ऐसी आदत थी हमारी, जिसके कारण हमारी गिनती
उनकी सख्त नापसंद वालों की फेहरिस्त में टॉप फाइव में रही।
बहरहाल वो दिन भी आया जब मैडम डिकोस्टा
रिटायर हुईं। जाते-जाते उन्होंने हमारी शिकायत की - जितना काम मैंने ३५ साल की नौकरी
में नहीं किया उससे कहीं ज्यादा पिछले साल भर में करना पड़ा।
हमने उनकी और उनके कामकाज में सहयोग
की भूरि-भूरि प्रशंसा की। और अंत में कहा - मेरी ज़िंदगी में देर से आप आयीं। काश कुछ
पहले आई होती तो कुछ और बात होती। ऐसी शिकायत न कर रही होती। चलिए अगले जन्म में सही, ये वादा रहा।
मैडम डिकोस्टा भी भला पीछे कहां रहने
वोलों में। दहला मार ही दिया- अब तक कितनों से यह वादा कर चुके हैं आप?
हमारी बोलती तो बंद होनी ही थी।
आज हम पीछे मुड़ कर देखते हुए सोचते हैं
- न मैडम डिकोस्टा जैसी रहीं और न हमारे जैसे बंदे।
एक कल था और एक आज है। कल जैसी बात अगर
कोई आज कहे तो सीधा नंबर लगेगा - १०९० पुलिस
हेल्पलाइन फॉर वीमेन।
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