Tuesday, August 25, 2015

अंतिम पड़ाव हरिद्वार, सदियों से चलती परंपरा।

-वीर विनोद छाबड़ा 
मोक्ष प्राप्ति हेतु हरिद्वार में अस्थि-विसर्जन। पुरखों द्वारा स्थापित यह परंपरा दिल को भाती है।
सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई। मालूम नहीं। अपने परिजनों की अस्थियों लेकर कई बार हरिद्वार जाना हुआ है। आख़िरी बार २००१ में गया था। मां की अस्थियां लेकर। मेरे साथ मित्र और पड़ोसी विजय भटनागर था।

हरिद्वार पहुंचे नहीं कि पंडों के एजेंटों ने घेर लिया। कहां के हैं?
मैंने पुश्तैनी शहर और अपने पंडे का नाम बताया तो छिटक गए। कोई पंडा दूसरे पंडे का केस नहीं छीनता। स्वस्थ परंपरा है।
पंडे के पास जाने से पहले कनखल पहुंचे। गंगा जी की बहुत तेज धारा। स्वच्छ और निर्मल। तलहटी तक दिखती है। हड्डियों ही हड्डियां बिछी हुई थीं। पानी कमर से नीचे है।
पंडित जी लपके। वो दक्षिणा की रक़म पहले ही बता देते हैं।
जिसने बड़े प्यार और कष्ट से पाल-पोस कर बड़ा किया, उसके नाम पर कोई सौदेबाज़ी नहीं।
अस्थियां प्रवाहित करके हम 'हर की पौड़ी' पहुंचे। 
जब हम अपने पंडे जी के डेरे पहुंचे तो उन्हें इंतज़ार करते पाया। उन्हें सूत्रों से हमारी आमद की ख़बर मिल चुकी थी।
एक पुराना लेजर खोला। छह साल पहले का वो पृष्ठ दिखाया। इस पर मेरे हस्ताक्षर थे। तब मैं पिता की अस्थियां प्रवाहित करने आया था।
पंडे जी ने पूछा क्या लाये हैं? मुझे शॉक लगा और अजीब सा भी। पिछली बार तो ऐसे नहीं पूछा था। जो दिया, रख लिया था।
अब ज़माना बदल गया है। एक मुश्त डील ठीक रहती है। पूजा, और हवन साम्रग्री और फीस सब इसी में। गऊ दान भी।

मैंने ऊंची रक़म बता दी। पंडे जी ने सौ बढ़ा दिए।
वस्त्र मेरे नए थे। पूजा और स्नान पश्चात इन्हें वहीं छोड़ना होता है। पंडे जी ने एक चेले की ओर इशारा किया। वस्त्र इन्हें दे दो। ग़रीब है। भला हो जाएगा।
फिर पंडे जी ने लेजर में हमारी एंट्री की। क्यों और किसके लिए आये? पिता का नाम, दादा और परदादा का नाम और उनके पिता का नाम। पत्नी और उसके मायके का खसरा-खतौनी दर्ज किया। साथ गए मित्र के खानदान का भी पूर्ण विवरण। हस्ताक्षर लिये।
मैंने पिछली सात पुश्तों के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रकट की।
पंडे जी ने सर हिलाया। मगर दो-तीन दिन रुकना होगा। पिछले डेढ़-दो सौ साल और उससे भी पहले के दौर के जिंतने पुरखे यहां आये और वो किनकी अस्थियां लेकर आये, सब पता चल सकता है।
लेकिन नियमानुसार काम ख़त्म कर पल भर भी रुकना मना है। हम लौट लिये।  
कई साल पहले पिताजी पिछली कई पीढ़ियां का इतिहास यहां से खंगाल गये थे। उन्हें अपने अतीत में झांकने और खानदान की जड़ों की गहराई नापने की प्रबल चाह रही थी।
सालों पहले आवागमन के साधन सीमित थे। हरिद्वार से छह-सात सौ मील दूर मियांवाली (अब पाकिस्तान में) में जब भी कोई दिवंगत होता तो उसकी अस्थियां पोटली में बांध कर मंदिर में रख दी जातीं ।

तीस-चालीस पोटलियां और दो-ढाई साल का अरसा गुजर जाता। फिर बैलगाड़ियों के साथ काफ़िला चलता। सफ़र लंबा, दुरूह और खर्चीला। जो वहन नहीं कर पाते, अस्थियां दूसरों को पकड़ा देते। साथ में कुछ पैसे भी।
कुछ बड़े-बूढ़े भी साथ हो लेते। उन्हें बड़ी भावुक विदाई दी जाती। लौटना नहीं होता था उन्हें। कुछ रास्ते में दिवंगत हो जाते। वहीं दाह-संस्कार कर दिया जाता। जो ख़ुशक़िस्मत हरिद्वार पहुंच जाते वो वहीं रह जाते। बाकी ज़िंदगी भगवान को समर्पित।
मूल्य बदल रहे है और परंपराएं टूट रही हैं। सब कुछ काली डायरी में लिख दिया है। मालूम नहीं, कोई मानता है या नहीं।
-----
25-08-2015 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016 

No comments:

Post a Comment