Monday, August 3, 2015

आग लगी हमरी झोंपड़िया में हम गावें मल्हार!

-वीर विनोद छाबड़ा
वो भी क्या सुखद दिन थे! पचास के दशक के आखरी दो साल और साठ के दशक की शुरुआत। हम लखनऊ के आलमबाग इलाके के चंदर नगर मार्किट के दुमंजिले पर रहते थे। खिड़की से ही आलमबाग का चौराहा साफ़-साफ़ दिखता था। वहीं होता था चार टांगों पर खड़ा एक विशाल ट्रांसफार्मर। 

याद पड़ता है पूरे चंदर नगर और आस-पास के कई मोहल्लों को यहीं से बिजली की सप्लाई होती थी। मार्टिन एंड बर्न नाम की एक प्राइवेट कंपनी के ज़िम्मे था लखनऊ में बिजली बनाना और सप्लाई का काम। ऐशबाग़ और तालकटोरा दो तापीय पावर हाउस थे। बिल जमा करने रेसीडेंसी तक दौड़ लगानी पड़ती। टाइम पर बिल जमा नहीं हुआ तो अगले दिन बिजली कट।
कभी-कभार ही जाती थी बिजली। जाती भी तभी जब ट्रांसफर दगता, ज़बरदस्त ब्लास्ट के साथ। चौबीस घंटे से कम वक़्त नहीं लगता था इसे बदलने में। गर्मी के दिनों में तो जान निकल जाती। लेकिन जनता भी कमाल के सब्र वाली। चूं तक न करती। विकल्प भी बहुत थे। हाथ से झलने वाले तरह-तरह के पंखे। और फिर जनता इतनी सुविधा परस्त भी नहीं हुई थी। दिन किसी तरह कट जाता और रात के लिए तो वैसे भी खुली छत। ठंडी-ठंडी हवा।
बहरहाल ट्रांसफार्मर का दगना बहुत बड़ा इवेंट माना जाता। हम बच्चे ही नहीं तमाम बड़े-बूढ़े जमा हो जाते। जले ट्रांसफार्मर को टकटकी लगाए रस्सियों के सहारे उतारते और फिर दूसरे या तीसरे दिन नया या उसी को मरम्मत होकर चढ़ते देखना। यह एक जटिल और कौतुहलपूर्ण प्रक्रिया होती। और जैसे ही बत्ती आती एक साथ कई मोहल्लों से ख़ुशी का शोर उठता। हम आस-पास खड़े लोग खूब जोर-जोर से तालियां बजाते। हाथ मिला कर बिजली कर्मियों को लोग शुक्रिया कहते। ऐसे ही आत्मिक सुख का अहसास टूटे तार को जोड़ते हुए देखने पर भी मिलता।
फिर चारबाग़ आ गए, रेलवे कॉलोनी में। वहां बिजली की दिक्कत खास नहीं रही। रेलवे की सप्लाई थी। लेकिन आस-पास के मोहल्लों में जब कभी ट्रांसफार्मर दगता तो पहुंच जाते। घंटों खड़े नज़ारा करते। भूख का अहसास तक न होता।
बड़े हुए। संयोग से नौकरी बिजली के दफ़्तर में मिली। एक से बड़े एक ट्रांसफर और विशालकाय पावर हाउस देखे। लेकिन जले ट्रांसफार्मर की जगह नया लगते देखने का सुख उठाने का जब भी मौका मिला तो चुके नहीं।
जब अस्सी के दशक में इंदिरा नगर आये तब पता चला कि बिजली की अहमियत और दिक्कत क्या है। कभी तार टूट जाता तो कभी टीपीओ उड़ जाता। कभी बस-बार तो लीड जल जाती। ट्रांसफर तो अक्सर उड़ा करते। डिमांड ज्यादा सप्लाई कम। ट्रांसफार्मर और तारें लोड न ले पातीं। ऊपर से आंधी तूफ़ान जैसी दैवीय आपदाएं।
शुरआत के सालों में तो जब बिजली जाती तो कई-कई घंटे बाद आती। टेलीफोन-मोबाइल नहीं होते थे। कई-कई बार एचएएल सब-स्टेशन की साइकिल से दौड़ लगती। लाइनमैन और दूसरा स्टाफ़ बड़े तरलों के बाद आता। मैं तो साइट पर खड़ा रहता, जब तक काम पूरा न हो जाता। 
बिन बत्ती के न दिन कटता और न रात। इन्वर्टर आये तो कुछ राहत मिली। लेकिन आत्मिक सुख उठाने की आदत तो पड़ी ही हुई है। बत्ती गयी नहीं कि सूंघते-सांघते पहुंच गए जहां लाइन टूटी है या ट्रांसफार्मर दगा है। न दिन देखा और न रात।

वहां मैं पहला पहुंचने वाला बंदा कभी नहीं होता हूं। मुझसे पहले मेरे जैसे टाइम पास करने की ग़रज़ से कई निठल्ले रिटायर्ड मौजूद होते। कम्पटीशन की तैयारी में लगे आस पास के अनेक नौजवान भी मदद के लिए जुटे होते हैं। सबको चिंता रहती है जल्दी बिजली आये। इन्वर्टर पर ज्यादा देर तक भरोसा नहीं होता।
महिलाएं भी निकल आती हैं। ठंडे पानी की बोतलें लेकर। आख़िर इंसान ही तो होते हैं ये पसीने से तर-बतर खंबे पर चढ़े बिजली वाले। इनके पास कभी रबड़ के दस्ताने नहीं होते तो कभी इंसुलेटेड प्लास। फ्यूज़ बांधने के तार और फंटी की तो अक्सर किल्लत रहती है। आस-पास के घरों से ही जुगाड़ हो पाता है। 
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