Saturday, August 22, 2015

ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया.…

-वीर विनोद छाबड़ा
यह कमबख़्त मोहब्बत भी अजीब शै होती है। आदमी को इंसान बना देती है और इंसान को हाईपर टेंशन से मारा शायर, फ़िलॉसफ़र और मजनूं भी। झाड़ की तरह बढ़ी हुई दाढ़ी। उनींदीं लाल-लाल आंखें। कई दिन से न सोया और न ही नहाया भूखा और बीमार इंसान। तन से आती बदबू और मैले कपड़े। बस हाथ में कटोरा पकड़ाने भर की देर है।

ठीक ऐसा ही होता था हमारे ज़माने का भी मजनूं।
आंख लड़ी। आंखों ही आंखों में ईशारा हुआ। मगर बात नहीं हो पायी। मिलने का इशारा किया।
हाय, कोई देख लेगा तो क्या कहेगा? देखने वाले तो क़यामत की नज़र रखते हैं। एक पल में ताड़ जाएंगे कि मामला 'गड़बड़' है।
इब्तदा इश्क़ में हम भूखे रह कर महीनों सारी रात जागे।
ख़तो-किताबत की हिम्मत नहीं हुई। ख़ामख़्वाह मुन्नी बदनाम होगी। न जाने कितने ख़त तेरी याद में लिख डाले। न जाने कितने अफ़साने बने, तराने बने।
मगर नामुराद झिझक न गयी। इसी चक्कर में दो साल ज़ाया हो गए। यूनिवर्सिटी में कार्स भी ख़त्म हो गया। इज़हार-ए-मोहब्बत इंतजार ही करता रह गया।
वो आख़िरी दिन था। बड़ी हिम्मत कर हमने ख़ून-ए-जिगर से हाल-ए-दिल बयां करता ख़त लिखा। दोस्त को क़ासिद बनाया।
मगर हाय! क़िस्मत में न बदी थी तू। अहमक़ क़ासिद को ही महबूब समझ बैठी। नामाकूल क़ासिद रक़ीब बन बैठा। दोस्त दोस्त न रहा, प्यार प्यार न रहा। क्या हुआ तेरा वादा, वो कसम वो इरादा कि यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे।
शहनाई बजी। सात जन्मों के परिणय सूत्र में बंध गए दोनों।
कहारों ने डोली उठाई। हम दूर खड़े धूल का उठता गुब्बार देखते रहे।
कलेजे पर पत्थर रख ग़म मिटाने शाम ढ़ले गोमती किनारे पहुंच गए। बैकग्राउंड से अनगिनत नग़मे गूंज उठे.मिली ख़ाक में मोहब्बत जला दिल का आशियानाऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहींमहफ़िल से उठ जाने वालों तुम लोगों पर क्या इलज़ामखाली डब्बा खाली बोतल
हमदर्द दोस्त ने समझाया जिसे अंजाम तक पहुंचाना हो मुश्किल उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ देना बेहतर।
हमारे दौर में ज्यादातर मोहब्बतों का यही अंजाम रहा। फिर भी हम मायूस नहीं हुए - ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद....। तू नहीं और सही।
बहरहाल, हम पर इसका साईड इफ़ेक्ट भी हुआ। हमारी 'लव लेटर्स मजबून एक्सपर्ट' की दूकान बंद हो गयी। क्या फ़ायदा ऐसे बकवास खतों का, जिसे पढ़ कर माशूका क़ासिद के साथ भाग निकले।
  
आज तक़रीबन बयालिस साल गुज़र चुके हैं। ज़ख्म भर भर गए हैं। मगर निशान बाकी हैं। हर महीने की एक ख़ास तारीख़ को टीस उठती है। जिस गली से हमें गुज़रना नहीं, उस गली का फेरा लगता है। शायद उसकी एक झलक मिल जाए। न हो तो जनाजे में शरीक होने का मौका ही सही ।
यह उम्मीद कम्बख़्त टूटती भी तो नहीं। जान जाने तक रहेगी।
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