Friday, August 21, 2015

बारिश के साइड इफ़ेक्ट।

-वीर विनोद छाबड़ा
आज बहुत बारिश हुई। अभी थोड़ी देर पहले ही थोड़ी कम हुई है। बरसात से डर नहीं लगता। डरता हूं उसके साइड और आफ्टर इफेक्ट्स से। जैसे आज हुआ।
बरसात शुरू हुई कि बत्ती चली गई। सब-स्टेशन और लेसा कंट्रोल, कहां नहीं फ़ोन किया। या तो स्विच ऑफ या फिर एंगेज। सोचा, लग भी गया तो इतनी बारिश में सुनेगा कौन सुनेगा? यही कहेगा बारिश रुके तो देखें।
इन्वर्टर तो है। बत्ती आने में तो तीन घंटा लग सकता है। हो सकता है सारी रात न आये। तब तक इन्वर्टर ने जवाब दे दिया तो। इसी चिंता के कारण नींद नहीं आ रही। इंतज़ार के अलावा कोई चारा नही।

बाहर बारिश शायद रुक गयी है। टॉर्च लेकर बाहर निकलता हूं। वाकई बारिश रुक गई है। मुझे ख़ुशी हुई। बारिश रुकने से ज्यादा इस बात पर कि अब थोड़ी देर में बत्ती आ जाएगी।
और वाकई बत्ती आ गयी। लेकिन नींद फिर भी नहीं आ रही है। बाहर सड़क पर पानी भरा है। सिगरेट की खाली डब्बियां, चप्पलें, गोबर जाने क्या-क्या तैर रहा होगा। हर बार ऐसा ही होता है। पिछले साल तो घर के अंदर तक घुस आया था बारिश का पानी। तार पर लटकी मेरी बनियाइन हवा से उड़ कर नीचे गिर गई थी। और मेरी नई चप्पल का जोड़ा। पानी दोनों को ही बहा ले गया। 
सोचता हूं उन लोगों का क्या हाल होगा जिनकी ज़िंदगी मेरे घर से थोड़ी दूर स्थित हाई-वे के चौड़े डिवाईडर पर बीतती है। दिन भर के थके-हारे मज़दूर और रिक्शेवाले ईटों के टेम्पोररी चूल्हे पर भोजन बनाते हैं। ईंधन मिल जाता है। इधर-उधर बिखरी पेड़ों की सूख कर गिरी डालियां, टहनियां और पत्तियां, बेकार टायर, सूखी घास-फूस और दुकानदारों द्वारा फेंके गत्ते के खाली डिब्बे। आज इनका क्या हुआ होगा? भोजन कैसे बना होगा? क्या भूखे सोये होंगे?
रात के दो बज चुके हैं। देखूं जाकर। लेकिन निकलूं तो कैसे? बाहर तो पानी ही पानी है। सड़क पर कहीं कहीं छोटे मोटे गड्ढे भी हैं। किसी में पैर पड़ गया या फिसल गया तो? खुद पर हंसी आ गयी।
आज की बारिश तो सर्वत्र लखनऊ में हुई होगी। चप्पा-चप्पा डूबा होगा। गोमती भी चढ़ी होगी। लखनऊ शहर को गोमती से कोई खतरा नहीं है। ऊंचे-ऊंचे सुरक्षा बांधों के रहते क्या मजाल कि शहर में बाढ़ का पानी घुस सके। खतरा तो अपनों से है। नालियों-नालों और उफनाते सीवरों से है। पता नहीं कौन से इंजीनियर हैं ये जिन्होंने जगह-जगह ये चोक लगने और बैक-फ्लो का 'उल्टा सिस्टम' तैयार किया है। पुराने लोग बताते हैं अंग्रेज़ों के ज़माने के लखनऊ में ड्रेनेज सिस्टम बहुत बढ़िया था।
अमां होगा। अब ज़रा सी समस्या के लिए अंग्रेज़ तो वापस नहीं बुलाये जा सकते। 
यों कबाड़ा करने में हम लोग भी कम नहीं। कारें खड़ी करने के लिए नालियां पाट दी हैं। घर का कूड़ा बड़े नाले में डाल दिया जाता है। नाला साल में कभी एक-आध दफ़े साफ़ होता है। कागज़ पर तो हर हफ़्ते साफ़ होता होगा।

तभी आवाज़ सुनाई देती है। पानी में कोई छप-छप करता हुआ आ रहा है। आवाज़ करीब आती है। टॉर्च ऑन करता हूं। देखता हूं, एक कुत्ता है। मुझे देख कुत्ता रुक जाता है। शायद मुझे अपना साथी समझ रहा है या हमदर्द। आज इसे भी कुछ खाने को नहीं मिला। भूखा है। वो दुम हिलाता है। मैं उसे रुकने को कह कर अंदर जाता हूँ।
लौट कर आता हूं। मेरे हाथ में रोटी देखकर उसकी आंखें चमकने लगती हैं। वो मुंह बढ़ा कर मेरे हाथ से रोटी छीन लेता है। उसने पलक झपकते रोटी उदरस्थ की। उसने फिर मेरी ओर इस उम्मीद में देखा कि मैं एक और रोटी दूंगा।
मेरे पास और रोटी नहीं है। यह सुन कर वो पानी में छप-छप करता अंधरे में गुम हो गया। शायद उसे मेरी तरह का कोई पागल आगे मिल जाये।
बड़ी संतुष्टि महसूस हो रही है। और नींद भी आ रही है। चलूं सोने। ऐसा न हो कि नींद चली जाए या बत्ती।
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