-वीर विनोद छाबड़ा
मेरी बड़ी बहन बीकानेर में रहती है। मुझसे तीन साल बड़ी। बेहद नज़दीक से मेरे बचपन
को देखने वाली एक मात्र गवाह।
मेरी एक छोटी बहन भी है। साथ-साथ खूब खेले और झगड़े हैं हम। याद नहीं आता कि बड़ी
बहन ने मेरी पिटाई की हो कभी। वो मेरे उस बचपन की यदा-कदा याद दिलाती है जो मेरे स्मृति
पटल पर नहीं है।
बड़ी बहन को ब्याहे हुए लगभग ४६ साल हो गए हैं। तब से आज तक राखी और भाई दूज का
टीका और साथ में ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद भेजना कभी नहीं भूली। पहले पिता जी परलोक
वासी हुए और फिर माता जी। लेकिन उसने मुझे कभी अनाथ महसूस नहीं होने दिया और न ही कभी
टूटने दिया, बावजूद इसके कि वो हज़ार किलोमीटर दूर है।
आज ही कोरियर से उसकी राखी मिली है,
साथ में ख़त भी। लिखती है -
फेस बुक पर तुम्हें प्रतिदिन पढ़ती हूं। खूब बढ़िया लिखते हो। लिखते रहो। कभी कभी
बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं। सच में वो दिन बहुत अच्छे थे। शरारतें भी करते थे
और डांट भी खाते थे। तुम्हें मां से खूब डांट पड़ती। वो कभी कभी कपड़े धोने वाले सोटे से तुम्हारी पिटाई
भी करती। पर मैं मां का हाथ भागकर पकड़ लेती। इस चक्कर में एक-आध सोटा मुझे भी पड़ जाता।
फिर्फ तुम रोते हुए एक कोने में बैठ जाते और देर तक सुबकते रहते। मां को बहुत दुःख
होता। थोड़ी देर बाद मां तुम्हें मनाने के लिए तुम्हारी पसंद का कुछ न कुछ बना कर तुम्हें
खिलाती। फिर तुम सब कुछ भूल कर ऐसी-ऐसी हरकतें करते थे कि मां के साथ-साथ हम सब हंस-हंस
कर लोट-पोट हो जाते। यह सब यादें आलमबाग वाले मकान से जुड़ी हैं।
मेरे पास भी बहन की अनेक यादें हैं। मुझे याद है बहन तब आठवें या नवें में पढ़ती
थी। उस ज़माने में लड़कियों के पाठ्य-क्रम में कुकिंग और सिलाई का अनिवार्य सब्जेक्ट
था। स्कूल वालों को सिर्फ़ परीक्षा वाले दिन इसकी याद आती थी।
जिस दिन बहन की परीक्षा होती थी उस दिन मुझे कुकिंग के सामान से भरी एक टोकरी और
एक छोटी से अंगीठी मय लकड़ी-कोयला और दियासलाई लाद साथ चलना पड़ता। जब तक एग्जाम ख़त्म
नहीं हो जाता उसके स्कूल के आस पास मंडराता रहता। ताकि किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो भाग
कर घर से ले आऊं।
उस दौर में लड़कियां खाना पकाना और सिलाई-कढ़ाई घर पर या अड़ोस-पड़ोस में किसी मौसी
या चाची से ही सीखती थीं, किसी इंस्टीट्यूट से नहीं। इसका महत्व तब पता चलता था जब लड़की देखने आये लड़के के
मां-बाप पूछते थे कि लड़की को खाना बनाना और सिलाई-कढ़ाई का काम तो आता है न!
बड़ी बहन की एक और आदत मुझे याद है। वो जब भी पढ़ती थी या झाड़ू-पोंछा के काम करती
थी तो ऊंची आवाज़ में रेडियो खोल देती थी। यह मुझे बहुत नागवार गुज़रता था। लेकिन बड़ी
होने के कारण उसी की चलती थी।
उसका महत्व हमें तब पता चला जब शादी होने पर उसकी बिदाई हुई। घर में कई दिनों तक
सन्नाटा पसरा रहा और हम सब सहमे-सहमे से रहे। हमें संभलने काफ़ी वक़्त लगा।
लेकिन कई-कई महीने के अंतराल पर वो बाद वो जब भी आती थी और जितने दिन तक रहती थी, घर में उत्सव सा माहौल
बना रहता था।
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