Monday, August 24, 2015

सपनों में मिलती है ऐसी कुड़ी।

-वीर विनोद छाबड़ा
वो मेरे अधीनस्थ कार्यालय में तैनात थी। मुझे चार-पांच साल छोटी होगी। अक्सर आया करती थी। फाईल के साथ किसी न किसी मुद्दे पर वार्ता करने। काम हो जाता तो मैं कहता कि ठीक है। मतलब यह कि जाओ।
लेकिन वो फिर भी बैठी रहती। किसी महिला को सीधे-सीधे यह कहते हुए मुझे ख़राब लगता था कि अब आप जायें कृपया। वो विवाहित भी थीं। दो बड़े-बड़े बच्चे भी। पति भी अच्छे थे। उससे बहुत खुश रहती थी।
वो अनेक देवी देवताओं की ज़बरदस्त भक्त। मुझे कई बार बता चुकी थी कि देवी मां की पर उस पर असीम कृपा है। हर मुराद पूर्ण हुई है। मुझे डर लगा कि कहीं श्राप न दे दे।
कर्मचारियों की नेता भी थी। ढाई-तीन हज़ार की भीड़ को बेझिझक संबोधित करने की हिम्मत। जब चाहे पिटवा दे।
मरदों को पीटने के कई किस्से सुना चुकी थी। शायद इरादा मुझे सावधान करने का था।
महिलाओं का उत्पीड़न रोकने हेतु समिति की भी वो सदस्य थी। मुझे बता चुकी थी कि उसकी शिक़ायत पर फलां अफ़सर का दूर ट्रांसफ़र हो चुका है।  
मैंने कई बार सपनों में उसके श्राप से ग्रसित होकर स्वयं को विशालकाय डायनासौर से लेकर तुच्छ मेंढक तक बना देखा।
एक बार तो बड़ा भयानक सपना आया। महिला उत्पीड़न समिति ने मुझे मुर्गा बनाया हुआ है।
सपनों में अपने को पिटता तो आये दिन देखा। बहरहाल, पिटने वालों में एक यूनिवर्सिटी में उसका क्लासफैलो भी रहा। संयोग से उसका एक अन्य क्लासफैलो मेरा सहकर्मी भी था। रिटायर हो चुका था। मुझसे यदा-कदा मिलने आता था। लेकिन जब-जब उस मोहतरमा ने प्रवेश किया वो भाग खड़ा हुआ। मुझे शक़ हुआ कि पिटने वाला कहीं यही तो नहीं। मैंने कई बार तहक़ीक़ात की। लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।
जब कभी वो नहीं आती थी तो मैं शुक्र मनाता। लेकिन जब वो लंबी छुट्टी पर चली जाती, तो ख़राब ख़्याल आते कि कहीं अस्वस्थ तो नहीं।
वो बहुत ख्याल भी रखती थी। उसे मेरे चाय का टाईम मालूम रहता। किस मेहमान को चाय ऑफर करनी है और किसे सिर्फ़ पानी पिला कर विदा कर देना है, यह भी वो याद रखती। इतनी केयर तो सिर्फ़ एक ही महिला रखती थी। और वो मेरी मां थी।
कई बार उसने अपनी पारिवारिक दिक्क्तें शेयर कीं। आर्थिक मदद भी मांगी। तय समय पर पैसे भी लौटा दिए।
वो खाली बैठ कर मुझे डिस्टर्ब नहीं करती। कभी-कभी डिक्टेशन लेनी शुरू कर दी। कम्प्यूटर ऑपरेटर इधर-उधर होता तो  उसे भी संभाल लेती।
कुछ लोगों की निगाह में उसकी मौजूदगी मेरी पहचान बन गयी। और आदत भी। शुभचिंतक तो कई बार आग़ाह भी कर चुके थे। दुश्मन मुझे 'गीला' टाईप अफ़सर प्रचारित करने से भी नहीं चूके। लेकिन मैंने परवाह नहीं की। मेरे लिए महज़ कर्मचारी है। मदद ही करती है। 
जब मेरे रिटायर होने को महीना भर बाकी रह गया तो उसने आना बंद कर दिया। याद नहीं आया कि कोई ऐसी-वैसी बात मैंने की हो।
आख़िरी दिन वो आई। मैंने कहा। बड़ी लंबी छुट्टी मारी।

वो बिंदास हंसी - ताकि आपको मेरे बिना रहने की आदत पड़ जाए।
मेरे मुंह से भी निकल गया  - और आपको भी मेरे बिना रहने की आदत पड़ जाये।
वो गंभीर हो गयी - सर, मैं आपको मिस करूंगी। मेरा बड़ा भाई बिलकुल आप जैसा ही है।
मेरे पर घड़ों पानी पड़ गया। काफ़ी देर तक मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। जैसे-तैसे खुद को बटोर कर मैं खड़ा हुआ। उससे हाथ मिलाया - थैंक्यू बहन जी। आप जैसी कुड़ी सपनों में ही मिलती है।
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