-वीर विनोद छाबड़ा
इन दिनों दामाद जी चर्चा में हैं। चुटकी पर चुटकी ली जा रही है। कोई उन्हें सलाखों
के पीछे पहुंचा रहा है। कोई सर आंखों पर बैठा रहा है। अच्छा दामाद बनाम ख़राब दामाद
की परिभाषा फिर से परिभाषित की जा रही है। भारतीय परंपरा की दुहाई देते हुए पुराणों
के हवाले से दामाद के सोशल स्टेटस की बात भी हो रही है।
दो राय नही रिश्तों में दामाद की रैंकिंग टॉप पर है। हमारे ज़माने में दामाद मोहल्ले
की सांझी विरासत हुआ करते थे। एक के घर का दामाद, पूरे मोहल्ले का दामाद।
उन्हें देखने, मिलने और छूने सारा मोहल्ला उमड़ पड़ता था। और खातिर-त्वजो तो पूछो मत। आज लंच शर्मा
जी के घर तो शाम की चाय कुलश्रेष्ठ के घर। 'डिनर-शिनर' तो त्रिवेदी जी का
सर्वाधिकार रहा है। दामाद किसी को भी हो। दामाद बेचारा ससुराल का माल दिल खोल कर भकोस
भी नहीं पाता था कि रुखसती का वक़्त आ पहुंचता था।
हमें अपने बाल्यकाल का एक नज़ारा याद आ रहा है कि हमारे रिश्तेदारी में एक दामाद
जी होते थे। खाने-पीने के ज़बरदस्त शौक़ीन। साथ ही परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों और रूढ़ियों के ज़बरदस्त मानने वाले।
हम उन दिनों दिल्ली में थे। पता चला वो आ रहे हैं। प्रोटोकॉल का खास ध्यान रखा
गया। परिवार के ख़ास सात सदस्यों का हाई पावर डेलिगेशन उन्हें रिसीव करने स्टेशन गया।
मोहल्ले के मुखिया जी भी उसमें शामिल थे। फूल-पत्ती से ज़बरदस्त स्वागत हुआ। मालाओं
से लाद दिया गया। ससुराल के बाहर एक अदद तोरण द्वार भी खड़ा किया गया। तमाम मोहल्ले
वाले उनसे मिलने आये।
हमें पता चला वो थोड़ा गर्म मिज़ाज़ आदमी हैं। एक सीमा से ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर
पाते थे। गाली-गलौज़ तक उतर आते हैं। लेकिन उन्हें बर्दाश्त करना भी मजबूरी होती। वो
जब तक वहां रहते तरह-तरह के व्यंजन लगातार बनते रहते। मदिरा के साथ-साथ मांस भक्षी
भी थे।
चूंकि खाने के साथ साथ पीने के शौक़ीन थे, लिहाज़ा एक बार इसकी व्यवस्था भी हुई। संयोग से इस मामले में
उनकी कंपनी देने वाला परिवार में दूर दूर तक कोई नहीं था। लिहाज़ा, कंपनी के लिए मोहल्ले
का ऐसा पियक्क्ड़ तलाशा गया जिसमें हलक से नीचे उतरने के बाद होश न खोने का ज़बरदस्त
एक्सपीरियंस था।
दामाद जी जब तक वहां रहे, हर दूसरे दिन उनको
फ़िल्म भी दिखाई गयी। एक बार हमें भी बच्चा समझ उनके साथ भेजा गया। वो फ़िल्म हमें अभी
भी याद है - सत सालियां। पंजाबी में थी। इंटरवल में कोका कोला और फ़िल्म ख़त्म के बाद
छोले-भठूरे और बंटे वाली बोतल पिलाई गयी।
उनकी पत्नी रिश्ते में हमारी मौसी होती थीं। वो हर पल पगलाई हुई सी निर्देश देती
दिखतीं कि ये लाओ और वो लाओ। ये चद्दर नही फलानी बिछाओ। तकिये का गिलाफ़ तो सुबह-शाम
बदला जाता। उन्हें यह रंग नहीं वो रंग पसंद है।
कोई दस दिन रहे वो। इस बीच माहौल ऊपर से बड़ा खुशनुमा और अंदर से बड़ा टेंस रहा।
कहीं कुछ ऊंच-नीच न हो जाये। कहीं दामाद जी उखड़ गए तो सब की ऐसी कम तैसी कर देंगे।
बड़ी बदनामी होगी।
शहर के तमाम रिश्तेदारों ने उन्हें खाने पर न्यौता दिया। मोहल्ले के कुछ लोगों
ने भी उन्हें चाय पर भी बुलाया।
कुल मिला कर उनके वहां रहने के दौरान जो भी घटा, मेरे लिए कौतुहल और
हास्य का विषय रहा। जब उनकी रुखसती हुई तो वही हाई पावर डेलीगेशन छोड़ने गया। मोहल्ले
के अनेक सम्मानित लोग तो तांगा स्टैंड तक साथ-साथ चले। तांगा चलते ही सबने यों राहत
की सांस ली मानो कोई बहुत बड़ा बोझ सर से उतरा हो - शुक्र है गया। इस बार तमाशा नहीं
खड़ा किया।
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12-08-2015 mob 7505663626
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Ha ha ha.. Nice one sir :)
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