-वीर विनोद छाबड़ा
मुझे याद आता है ६० और ७० के दशक। मनोरंजन
का एक मात्र साधन सिनेमा। ठसा-ठस भरे सिनेमा हाल।
बढ़िया फ़िल्म हो बात ही निराली। सौ दिन
और फिर २५ हफ़्ते यानी सिल्वर जुबली। बहुत शानदार फ़िल्म की गोल्डन जुबली। सौ दिन चली
फ़िल्म हिट की श्रेणी में गिनी जाती। अख़बारों में बड़े-बड़े पोस्टर छपते। सिनेमा घरों
को कागज़ की रंगबिरंगी झंडियों से सजाया जाता। रात झिलमिल-झिलमिल रंगीन बत्तियां जलतीं।
दर्शकों में मिठाई बटती।
हमें याद है लखनऊ के बसंत टॉकीज़ में
'आई मिलन की बेला' के सौ दिन पूरे होने पर दो लड्डू का
पैकेट मिला था। इसे पाने के चक्कर में हम चौथी बार फ़िल्म देखने गए थे।
सिल्वर जुबली वाली फिल्म सुपर हिट होती
और गोल्डन जुबली वाली सुपर डुपर हिट। साल में चार-पांच फ़िल्में ही वास्तविक सिल्वर
जुबली तक पहुंचतीं। घिसट-घिसट कर जुबली तो कई मना लेतीं। किसी शहर में किराये पर सिनेमा
हाल का इंतज़ाम कर लिया जाता था। मुगल-ए-आज़म, बॉबी, पाकीज़ा, दुल्हन वही जो पिया मन
भाये, अंखियों के झरोंखों से आदि अनेक फिल्मों की गोल्डन जुबली तो
हमने अपने शहर में ही देखी है।
सिनेमा हालों में बाक़ायदा शोकेस में
१०० दिन, सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली की ट्रॉफियां सजा कर रखी जाती
थीं।
टीवी और फिर वीसीआर की आमद और नई-नई
फिल्मों के पायरेटेड कैसेट की वज़ह से फिल्म बनाने वाले और दिखाने वालों का धंधा चौपट
हो गया। सिनेमाहाल बंद होने लगे।
मल्टीप्लेक्स और सिनेप्लेक्स का ज़माना
आ गया। सिनेमा को नयी ज़िंदगी मिली। लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल वालों को नहीं। हमारे
शहर में २८ की जगह आठ-नौ ही रह गए हैं। फ़िल्म
का रन हद से हद से पांच-छह हफ़्ते। सौवां दिन मनाना सपना हो गया। बस गिना जाता है कि
पहले दिन बॉक्स पर कलेक्शन और हफ़्ते भर का कलेक्शन कितना हुआ? आल इंडिया सौ करोड़ या
दो सौ या तीन सौ करोड़। नफ़ा-नुकसान तो लागत के सापेक्ष।
सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली का पेटेंट
तो शादी-शुदा ज़िंदगी के नाम हो गया।
यों जश्न मनाने का बहाना तलाशने वाले
कुछ लोग शादी के १०० दिन पूरे होने पर भी जश्न मना लेते हैं। और कुछ सरकार के १०० दिन
पूरे होने पर।
हां, एक अपवाद है, १९ अक्टूबर १९९५ को रिलीज़
हुई थी 'दिल वाले दुल्हनिया ले
जाएंगे'.
पिछली १९ फरवरी को मुंबई के मराठा मंदिर
ने १००९ हफ्ते तक फ़िल्म को लगातार चलाने का रिकॉर्ड बनाने के बाद फ़िल्म को उतारने का
फ़ैसला किया। कारण दर्शकों का अभाव। आख़िरी शो में २१० थे। लेकिन ख़बर है कि दर्शकों और
फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी के उत्साह के चलते थिएटर प्रबंधन को अपना फ़ैसला बदलना पड़ा।
आज की पीढ़ी हैरान होती है - बीस साल
में तो एक जनरेशन जवां जाती है।
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