-वीर विनोद छाबड़ा
मैं सिलाई
मशीन खोल कर फिर से बांधना। साइकिल की भी छोटी मोटी मरम्मत करना। बिजली का फ्यूज़ लगाना।
यही गुण
देख कर पिताजी ने सोचा बेटा इंजीनियर बंनने योग्य है। इंटरमीडिएट में फिजिक्स कमेस्ट्री
और मैथ दाखिला करा किया। जबकि मेरे सपने कुछ और ही थे। नतीजा-फर्स्ट क्लास फेल। कोढ़
में खाज - सनीमाबाज़ी और यूनियन बाज़ी।
लखनऊ
का विद्यांत कॉलेज और प्रिसिपल- श्री हरी चंद डे। बहुत ही सख़्त किस्म के।
फेल होने
पर घर में ख़ासी फ़ज़ीहत हुई। साइंस में अपनी औकात मुझे मालूम थी।
फैसला
किया कि अपनी मनपसंद हिंदी-इंग्लिश के साथ इकोनॉमिक्स और सोशियोलॉजी लूंगा। इस बारे
में माताजी-पिताजी को भी नहीं बताया। प्रिसिपल साहब के सामने फॉर्म लेकर हाज़िर हुए।
वो सख्ती से बोले - पैरंट्स के साथ आओ।
बस यहीं
गाड़ी फंस गयी। पिताजी या माता जी आये तो यह डे साहब तो सारा अगला-पिछला चिट्ठा खोल
देंगे।
बेहद
निराश व हताश कॉलेज के बाहर खड़ा था। समझ नहीं पा रहा था कि अगले पल बिजली गिरेगी या
धरती फटेगी।
ऐसे कठिन
समय में मुनीर हैदर संकट मोचक बन कर सामने आया।
ये हैदर
भी मेरे साथ फेल हुआ था। मेरी तरह साइंस छोड़ आर्ट्स चाहता था और उसका एडमिशन बड़ी आसानी
से इसलिए हो गया था।
मेरी
विपदा पर वो बोला - नो प्रॉब्लम। मैंने तो नकली बाप खड़ा किया था। तुम्हारा भी इंतेज़ाम
करते हैं।
तभी हैदर
ने एक साइकिल सवार को हाथ के इशारे से रोका। किनारे जाकर बात की। फिर हैदर ने परिचय
कराया- ये मेरे मामू लगते हैं और अब से तुम्हारे चचा। तुम्हारी तरह गोरे-चिट्टे और
मोटे लेंस का चश्मा। पक्के चचा-भतीजे लगते हो।
डर लगा
कि कहीं पकड़ा न जाऊं। पर मामू-भांजे ने मेरा हौंसला बढ़ाया।
ज्यों
ही हम प्रिसिपल के कमरे में घुसने लगे मामू ने चश्मा उतार लिया। मैंने उसे हैरानी से
देखा। मामू धीरे से बोले -सुबह एक एडमिशन चश्मा लगा के करा चुका हूं। मेरी सांस गले
में अटक गयी। शर्तिया पकड़े जाएंगे। लेकिन तब तक मामू अपना मुंह खोल चुके थे - सर,
मैं इसका चाचा हूं, रेलवे में मुलाज़िम। भाई साहब और भाभी एक ग़मी में दिल्ली गए हैं। इसलिए मुझे आना
पड़ा।
इधर डे
साब ने मेरा कच्चा चिट्टा खोल दिया। मामू ने मुझे घूर कर देखा। इससे पहले इस तरह घूरने
का सबब जान पाता उन्होंने एक कंटाप मेरे गालों पर रसीद दिया। मैं सन्न रह गया। इस बीच
उन्होंने डे साब को आश्वस्त किया कि आइंदा से ऐसा नहीं होगा। डे साब ने मुझे एडमिट
कर लिया और साथ में ताकीद भी की कि बहुत मेहनत करनी होगी। पिछला कोर्स भी कवर करना
होगा।
हम बाहर
निकले। मुनीर इंतज़ार कर रहा था। मैं एडमिशन की ख़ुशी भूल मामू पर फट पड़ा- मुझे कंटाप
क्यूं मारा?
मामू
ने बड़े प्यार से समझाया - भतीजे रियल्टी लाने के लिए। बेटा इसी कंटाप से तुम्हारा एडमिशन
मुमकिन हुआ है। कहो तो अभी सब डे साब को बता दूं?
मेरे
सामने मन मसोस कर चुप रहने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं था।
और कॉलेज
के सामने आगरा मिष्ठान भंडार में मामा-भांजे ने जम कर समोसा,
मिठाई और छोले भकोसे। वहां के मालिक का छोटा भाई गोविन्द यादव
मेरा सहपाठी था। इसलिए उधार चल गया।
महीना
भर गुज़रा। मैंने अथक मेहनत की। पढ़ने से अक्ल तेज़ हुई और खुराफ़ात भी कम सूझी। गलतियों
का अहसास हुआ। पश्चाताप और ग्लानि का भी अर्थ समझ आया।
एक दिन
मैं डे साब के कमरे में गया। और उन नकली चाचा का किस्सा बयां कर दिया।
डे साहब
ने सर उठाया। मुझे मालूम है। तुम्हारी उम्र में हमने भी ऐसी ही खूब शरारतें और गलतियां
खूब की हैं। अभी तक तुम्हारी रिपोर्ट अच्छी है। एक महीने का टाइम और देता हूं। आगे
भी ठीक रहे तो सब माफ़। वरना तुम्हारे पेरेंट्स को बुलाना पड़ेगा।
मैंने
डे साब को मौका नहीं दिया। हां फिल्मबाज़ी पर कंट्रोल नहीं हो पाया।
पीछे
मुड़ कर देखता हूं। गौरवशाली अतीत भले नहीं रहा। मगर संतुष्टि ज़रूर है कि वक़्त रहते
संभल गया। वरना किसी गटर में पड़ा होता। हां वो हैदर और उसके मामू का कंटाप। याद आते
ही गाल पर हाथ चला जाता है। वक़्त के सैलाब में बह कर हम बिछुड़ गए।
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