-वीर विनोद छाबड़ा
रामजी कपड़े के बड़े थोक व्यापारी हैं। अथाह धन-दौलत और साधनो के मालिक। भरा-पूरा
संयुक्त परिवार। आये दिन किसी का जन्म-दिन और कभी किसी का मुंडन या छटी।
ज़बरदस्त जश्न।
सौभाग्य से बंदे की झोपड़ी रामजी के महल के पड़ोस में है। लिहाज़ा आये दिन दावतें खाने
को मिलती हैं।
रामजी फूल-पत्ती के नए फैशन के बहुत विरुद्ध हैं। उनका बस चले तो फूल की दुकानें
ही बंद करा दें। जन्मदिन हो या सगाई-शादी की दावत, कई लोग बुके लिए चले
आ रहे हैं। वो भनभनाते हैं कि इनको सर पर मारूं क्या? नक़द दिए होते तो कुछ
काम भी आते। चार सौ रूपये प्रति प्लेट दस आदमी का पूरा परिवार हड़प गया। लेकिन रामजी
भी कोई कम नहीं। अगली पार्टी में फूलवाले कई भरे-पूरे परिवार नहीं दिखे। सबको छांट
दिया।
मगर बंदे को गर्व है कि उसने कभी नकदी वारी तो कभी रंग-बिरंगी चमकीली पन्नी में
लिपटा बड़ा सा गिफ्ट।
उस दिन ख़ास पार्टी थी। रामजी पिचहतर के हो गए। बंदा टूर कट-शार्ट कर ऐन मौके पर
वापस पहुंचा। साप्ताहिक बंदी के कारण मार्किट बंद। सो फूलों का बढ़िया सा बुके लिया
और चल पड़ा सपरिवार।
रामजी ऊंचे मंच पर बादशाहों वाली शानदार कुर्सी पर विराजमान थे। बगल में बैठी पत्नी
नकदी वाले लिफ़ाफ़े एक बड़े बैग में भर रही थी। गुलदस्ते मंच के पीछे फेंके जा रहे थे।
बंदे के गुलदस्ते का भी यही हश्र हुआ। फूल की जगह नक़दी होती तो कुछ और बात होती। लेकिन
बंदे को यकीन था कि चचा को दो-चार दिन बाद बढ़िया गिफ्ट देकर मस्त कर देगा।
लेकिन दुर्भाग्यवश ये हो न सका। कभी यहां जाना पड़ा तो कभी वहां।
रामजी परिवार से हरदम चिढ़ी रहने वाली वीरांगना मेमसाब ने भी कह दिया - छोड़ो भी।
बुढ़ऊ के पास बहुत कुछ है। तुम्हारे ढाई-तीन सौ रूपए के फोटोफ्रेम का क्या महत्व उनके
लिए? फिर कौन याद रखता है कि फूल-पत्ती कौन लाया था और गोभी का फूल कौन? अभी न जाने कितने जन्मदिन
और मुंडन होने हैं। यों भी लिफाफे का वज़न देखकर रिटर्न गिफ्ट देते हैं। हमारा तो नंबर
कभी आया नहीं और न आयेगा। तुम्हें तो वो प्रजा समझते हैं। कुर्सी यहां से वहां रखो।
बंदा मेमसाब के उवाच से सहमत नहीं है। रामजी बड़े आदमी हैं। उनके सानिध्य में रहना
उपलब्धि है। पिचहतर पार के बावजूद हट्टे-कट्टे हैं, बिलकुल लाल-सुर्ख़।
उनका महल हमारा लैंडमार्क है। दुःख-सुख में काम भी वही आयेंगे। कल ज़रूर जाएंगे उनको
गिफ्ट देने।
लेकिन उसी शाम बंदे को रामजी मिल गए पार्क में टहलते हुए। गुड न्यूज़ दी उन्होंने।
पोते की शादी है। तिलक, शादी और रिसेप्शन तीनों में सपरिवार ज़रूर आना है। आज-कल में न्यौता पहुंच जाएगा।
बंदे ने बड़ी शिद्दत से न्यौते का इंतज़ार किया। ज़रा सी आहट हुई नहीं कि फ़ौरन उठ
बैठा। आ गया, आ गया, न्यौते का कार्ड। लेकिन आहट कभी चूहे की निकली तो कभी बिल्ली की। इधर तिलक भी हो
गया, शादी और रिसेप्शन भी निपट गया। लेकिन न्यौता नहीं आया।
बंदे की मेमसाब कतई नाराज न होती अगर पड़ोस वाले छिद्दू बाबू विद फैमिली तीनों फंक्शन
में निमंत्रित न होते। उसकी वाणी में तंज़ है - और ले जाओ फूलों का बुके। छंट गए न!
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Note Published in Prabhat Khabar dated 01 Feb 2016
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