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वीर विनोद छाबड़ा
बजट - २०१६.
बीड़ी पर टैक्स की मार नहीं पड़ी। और सिगरेट महंगी। एक सिगरेट पी और दस रुपया धुआं
हो गए। बहुत महंगी पड़ रही है। अब तो बीड़ी पीने की तैयारी करो यारों।
Smoking is Injurious to health |
यूं तो हम बीड़ी पीते नहीं और सिगरेट को जहन्नुम रसीद किये भेजे तकरीबन १४ बरस होने
को आये। लिहाज़ा हमारे पर इनके महंगे-सस्ते होने का कोई असर नहीं पड़ रहा।
लेकिन बीड़ी बनाम सिगरेट के नाम पर बहुत पुराना किस्सा याद आ गया। पूर्व में इस
पर एक पोस्ट भी लगा चुका हूं। संक्षेप में फिर ज़िक्र किये देता हूं।
हुआ यूं था कि हम एक सरकारी काम से इलाहाबाद जा रहे थे। गर्मी के दिन थे। रात की
ट्रेन। बेइंतहा भीड़। किसी तरह धंस लिए।
ट्रेन चली तो उसके झटकों-धचकों से हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। एक बर्थ पर चार लोग
चौकड़ी मार कर पसरे हुए थे।
अगर पांव लटका कर बैठ जायें तो एक एक्स्ट्रा आदमी की जगह तो आसानी से बन जाये।
हमने रिक्वेस्ट की। नहीं माने वो लोग।
वो लोग बीड़ी पी रहे थे। हमें एक ट्रिक सूझी। जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली। एक
खुद मुंह में लगाई और उन्हें भी ऑफर की। सकुचाते हुए उन्होंने ले ली।
उनमें से एक बोला - बाबू साहेब खड़े क्यों हो?
यह कहते हुए वे सिमट गए। बन गयी जगह हमारे बैठने की।
कुछ देर बाद एक स्टेशन आया। चाय चाय चाय। हमने खुद भी चाय और उनको भी ऑफर की। चाय
के बाद सिगरेट की तलब। हमने खुद भी पी और उनको भी पिलाई। खूब खुश। मजूर भाई थे वे।
लखनऊ से मुगलसराय जा रहे थे अपने घर छुट्टी मनाने।
घंटा भर और गुज़रा। फिर एक स्टेशन। चाय चाय चाय। हमने फिर चाय पी और उनको भी पिलाई।
फिर वही सिगरेट की तलब।
लेकिन सिगरेट तो ख़त्म हो चुकी थी। इधर ट्रेन भी सरक चुकी थी। मजूर भाइयों ने बीड़ी
सुलगा ली। हमने उनकी तरफ कातर दृष्टि से देखा।
बाबू साहेब हम छोटी जाति के हैं - हरिजन।
हमने कहा - कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इंसान तो हो।
उस दिन हमने पहली दफ़े बीड़ी पी। बहुत मज़ा आया। सुबह तक बीड़ी पर बीड़ी ही पीते रहे।
इलाहबाद स्टेशन पर हम उतरे। अपने इन बीड़ी साथियों से हाथ मिलाया और अपनी अपनी मंज़िल
की और चल पड़े।
उसके बाद हमने कई बार बीड़ी पी। इसका मज़ा कुछ निराला ही है।
मित्रों मस्ती में हों, तो पूछो मत। फिर तो - बीड़ी जलाई लो,
जिगर से पिया...
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