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वीर विनोद छाबड़ा
यह बात उन दिनों की है जब सिगरेट,
अख़बार और टॉयलेट का ज़बरदस्त कनेक्शन हुआ करता था। एक दिन पत्नी
ने अंकुश लगा दिया। शर्म नहीं आती, बच्चे बड़े हो रहे हैं। ग़लत प्रभाव पड़ेगा।
हमारे घर से करीब सौ मीटर पर गुमटी थी। सुबह चाय-शाय पीने के बाद वहीं चले जाते
थे। दनादन एक सिगरेट फूंकी और भागे सीधा घर। रास्ते में कोई मिल गया तो चलते-चलते टाटा
बोल दिया- गुरू आज नहीं कल मिलना। ज़बरदस्त लगी है।
कुछ जानने वाले तो हाथ हिला कर आगे निकल लेते - अपना भी यही हाल है।
यों लगता बड़ा ख़राब था और डरते भी थे कि ऐसा न हो कि रास्ते में अंडरवियर पायजामे
सहित खराब हो जाए।
तब हमने नया तरीक़ा निकाला। पंद्रह मिनट पहले ऑफिस पहुंच, इस उम्मीद में कि टॉयलेट
खाली मिलेंगे। लेकिन हमें न मालूम था कि आगे की दुनिया भी पिछली दुनिया से कम नहीं
है। बीवी से डरने वालों से भरी हुई। ऑफिस में दो ब्लॉक होते थे। एक में सात मंज़िलें
और दूसरे में पंद्रह। हर फ्लोर पर चार-चार। कोई भी खाली नहीं। हर शाख़ पे उल्लू बैठा
है।
ठाठ तो साहब लोगों के थे - अटैच। मगर वो भी फुल्ल। हमने सर्च किया कि कोई तो होगा
पहलवान, जो बीवी से नहीं डरता होगा। देखें किसमें कितना है दम? आख़िर एक मिल ही गया।
मगर वैसा नहीं जैसा हमने सोचा था। उसकी पत्नी दूसरे शहर में रहती थी। लेकिन हमें उससे
क्या मतलब? अपना उल्लू सीधा होना चाहिए। आते भी वो देर सवेर थे। अपना काम तो हो गया। महीनों
यह सिस्टम चला।
फिर हमने सिगरेट छोड़ ही दी। एक-आध महीना कष्टप्रद रहा। गुमटी पर खड़े हो जाते। हाथ
सिगरेट के लिए आगे बढ़ता। यार एक आध पीने में क्या हर्ज़ है?
लेकिन दूसरा हाथ बढ़े हाथ को पीछे खींच लेता। हम हवा में कश मार कर चल देते। घर
पहुंचे नहीं कि....। फिर यह भी छूट गया। इत्ती सर्दी में कौन उठ कर जाये? कमरे में ही पानी पी
कर टहल लिए। अब सब नार्मल है।
लेकिन ज़िंदगी कभी कभी इम्तिहान ले लेती है। महीने में दो-तीन बार एक-एक दिन का
कांस्टीपेशन हो जाता है। हम मुंशीपुलिया निकल लेते हैं। तमाम बीड़ी-सिगरेट पीते हुए
दिख जाते हैं। दिल को चैन मिल गया। और हम फ़ौरन घर लौट लेते हैं। कभी कभी धक्का ज्यादा
ज़ोर का हो जाता है। लेकिन जहां चाह,
वहां राह भी। सुलभ शौचालय वहां है न।
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