Tuesday, February 9, 2016

न पीने की सज़ा।

- वीर विनोद छाबड़ा
एक ज़माना था जब हम अक़्सर दारू वाले मित्रों को अपनी गाड़ी में ढोकर उनके घर छोड़ा करते थे। यह दारू न पीने की सज़ा थी। ज़ाहिर है ऐसा हम शौक से नहीं करते थे। मजबूरी होती थी कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो पड़े रहेंगे। नुकसान भी हो सकता है। ऐसे में हम कभी खुद को माफ़ नहीं कर पायेंगे।

सत्तर के दशक में ऐसा हादसा हो चुका था। इस नाते भी हम सतर्क रहते थे। हुआ यह था कि उस ज़माने में हम साईकिल से चला करते थे। शाम को ऑफिस बंद हुआ। एक सहकर्मी मिले, बिलकुल फुलटॉस। रिक्शे पर थे। ज़िद करने लगे हमारे साथ घर चलो। हमने सख्ती से मना कर दिया। और जैसे-तैसे पिंड छुड़ा कर भाग निकले।
दूसरे दिन सुबह ऑफिस पहुंचे तो पता चला कि वो सहकर्मी इंतकाल फ़रमा गए हैं। पिछली रात दारू के अड्डे पर बेहोश पड़े मिले। अस्पताल पहुंचाये गए। वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
हम बहुत पछताए कि अगर हम साथ चले गए होते तो शायद यह 'होनी' टल जाती। जब हमने अपने एक अज़ीज़ मित्र से अपनी यंत्रणा को शेयर किया तो उसका कहना था - यह भी तो हो सकता था कि तुम भी उसके साथ दारू के अड्डे पर बैठ गए होते।
बहरहाल, हम कह रहे थे टुन्न दोस्तों को ढोने की बात।
एक दिन एक प्रीतिभोज में मित्रों ने जम कर दारू पी। उनमें से एक तो हम पिक करके लाये थे। उनकी पत्नी ने कहा था - भाई साहब, इनको लेकर भी आइयेगा। बाकी दो तो स्कूटर से थे। लेकिन चलाने की मुद्रा में कतई नहीं। मेजबान ने भी रिक्वेस्ट की कि इनको घर छोड़ दो। दोस्त और फिर मानवीय दृष्टिकोण। हमने कहा - नो प्रॉब्लम।
एक टुन्न तो कार ड्राईव करने की ज़िद करने लगे। बड़ी मुश्किल से उन्हें पीछे डंप किया।
बहरहाल, हमने एक-एक करके उनको घर छोड़ा। तीसरे साहब ज्यादा ही टुन्न थे। उनकी पत्नी ने कहा - प्लीज़ इन्हें हॉस्पिटल पहुंचा दें।
इसी कारण रात काफ़ी देर हो गयी। मोबाईल का ज़माना नही था। रात ज्यादा होने के कारण कहीं पीसीओ खुला नहीं दिखा। वैसे हमने चलते वक़्त मेजबान से बोल ही दिया था कि हमारे घर फ़ोन कर देना कि बारह बजे तक पहुंच जाऊंगा। अगर थोड़ी ज्यादा देर भी हो गयी तो चिंता मत करें। हम आश्वस्त थे कि हमारे घर फ़ोन हो चुका है।
बहरहाल, जब हम रात ढाई बजे घर पहुंचे तो घर में कोहराम मचा था। अड़ोसी-पड़ोसी जमा थे। हम उनको देख हैरान थे और वे हमको देखकर। दो सिपाही खड़े थे। कह रहे थे कि थाने पर एक डेड बॉडी आई है, चल कर शिनाख़्त कर लें।
बाद में पता चला कि हमारे मेज़बान मित्र अपनी व्यस्ताओं के कारण हमारे घर फ़ोन करना भूल गए। जब हम डेढ़ बजे तक घर नहीं पहुंचे तो चिंतित पत्नी ने पड़ोसी से मदद मांगी और अति उत्साहित पड़ोसी ने पड़ोसी धर्म के अंतर्गत थाने पर गुमशुदगी की सूचना लिखवा दी थी।
नोट - हमने जिन तीन मित्रों को उनके घर छोड़ा था, उनमें से दो इस दुनिया में नहीं हैं।
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