Sunday, February 28, 2016

पागलपन।

- वीर विनोद छाबड़ा
१९८९ के नवंबर का महीना था।
उन दिनों भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान का दौरा कर रही थी। यह वही सीरीज थी जिसमें सचिन तेंदुलकर का इंटरनेशनल डेब्यू हुआ था।

उन दिनों हम क्रिकेट पर दीवानावार लिखा करते थे। सोते-जागते सिर्फ क्रिकेट के बारे में सोचते। और कहीं उठते-बैठते तो सिर्फ क्रिकेट पर ही चर्चा। संक्षेप में सर से पांव तक क्रिकेट में रंगे थे।
उन्हीं दिनों हमारे पिताजी के एक लेखक मित्र पाकिस्तान से मिलने आये। मूलतः वो ग़ाज़ीपुर के रहने वाले थे। हमें उनका नाम याद नहीं आ रहा है। लौटने से पहले वो हमारे कमरे में आये।
हमारा कमरा देख कर वो हैरान रह गए।
कमरे की चारों दीवारों के चप्पे चप्पे पर पोस्टर। कहीं कपिल देव हैं तो कहीं एलन बॉर्डर। सुनील गावसकर भी हैं और विव रिचर्ड भी।
लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा हैरानी तो उन पोस्टरों में इमरान खान, जावेद मियांदाद और ज़हीर अब्बास को देख कर हुई। वो खुद भी क्रिकेट के दीवाने थे। कहने लगे - मैं तो अब तक यही समझ रहा था कि पागल सिर्फ़ पाकिस्तान में हैं। लेकिन आज मालूम हुआ कि यहां भारत में भी इनकी कमी नहीं। कराची हो या लाहोर या फिर मुल्तान। कई घरों की दीवारों पर आपको कपिल देव, गावसकर, विश्वनाथ और यशपाल शर्मा के बड़े बड़े रंगीन पोस्टर चिपके हुए मिल जायेंगे।
वो जाने लगे तो जेब से सौ का नोट निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिया।
हमने बहुत इंकार किया।
लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती की। कहने लगे यह दोनों मुल्कों के अवाम के बीच क्रिकेट के प्रति कॉमन पागलपन के नाम। ख़ुदा से दुआ करता हूं कि पागलपन का यह जज़्बा क़ायम रहे।
यह कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। 
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