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वीर विनोद छाबड़ा
मुद्दत पहले की बात है। एक दिन एक साईकिल वाले ने हमें पीछे से ठोक दिया। दायीं
टांग पर चोट लगी।
पड़ोस के डॉक्टर के पास गया। मरहम पट्टी की उन्होंने। फिर ढेर खुली गोलियां दे दीं।
हमने पूछा - इसमें क्या क्या है?
डॉक्टर ने कहा - आम खाईये, पेड़ मत गिनें।
हमने कहा - बताना ज़रूरी है। हमें कुछ दवाएं सूट नहीं करती हैं।
डॉक्टर साहब को ख़राब लगा - हमारी दवाएं सबको सूट करती हैं। आपको भी करेंगी। पहले
खाईये। प्रॉब्लम हो तो बताईये।
परचा भी उन्होंने नहीं दिया। हमने उनकी दवा खाई, चार दिन तक। रोज़ डेढ़
सौ रुपया फीस लेते थे। उस ज़माने के हिसाब से बहुत ज्यादा थी फीस। चोट में कोई फर्क
नहीं पड़ा। गहरी होने लगा। दर्द भी बहुत बढ़ गया। टांग भी अकड़ सी गयी। उठने-बैठने में
दिक्कत होने लगी। दवा खाने के बाद काफ़ी देर तक घबड़ाहट भी होती थी।
हम थोड़ी दूर के दूसरे डॉक्टर के पास गए।
उन्होंने हमें दाढ़ी साफ़ करने का हुक्म दिया। फिर एक विटामिन की गोली सुबह-शाम तीन
दिन तक। एक पेन किलर ज़रूरत पड़ने पर।
हमारी टांग पर भालू की तरह बाल थे।
उन्होंने सलाह दी। नए ब्लेड से शेविंग कर लो। घाव को गुनगुने पानी से धो लो। सोफ्राडेक्स
क्रीम लगाओ और पट्टी और कॉटन की पैकिंग रख लो। फिर पेपर टेप से चिपका लो। रोज़ सुबह
शाम तीन दिन तक करो।
फीस सिर्फ़ तीस रूपए।
हमें पहले दिन ही आराम मिल गया। तीसरे दिन तक तो चोट भी भर गयी। दफ़्तर आने जाने
लगे।
हम डॉक्टर के पास गए। उन्होंने देखा। बोले, तीन दिन तक और कर लो।
हमने फीस देनी चाही। मना कर दिया। लिखा तो हमने कुछ है नहीं।
अब वो डॉक्टर भी काफ़ी सयाने हो गए हैं। तीन सौ रुपया फीस लेते हैं। कहते हैं, सस्ते डॉक्टर के पास
लोग आते ही नहीं।
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14-02-2016 mob 7505663626
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