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वीर विनोद छाबड़ा
एक बुज़ुर्ग ने हमें कभी समझाया था हर सवेरा और नया जन्म है। दुःख भी हैं और
सुख भी, जिसे आना है उसे कोई रोक नही सकता। नियति का खेल किसी न जाना। जो भी है, जैसा है उसे
एन्जॉय करो।
हमारे पिताजी को कैंसर था। मृत्यु दो-तीन महीने में सुनिश्चित थी। ऐसा तमाम
डॉक्टरों ने बताया। सारे जतन भी कर लिए। लेकिन बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं
हारी। एक होमियोपैथ से कंसल्ट किया। उसने दवा दी। लेकिन उससे ज्यादा एक विश्वास
पैदा किया कि आप ठीक जायेंगे। गारंटी है मेरी। हर तीन महीने बाद एक अल्ट्रा साउंड
कराते थे और बताते थे कि आपकी किडनी का कैंसर लंप ज़रा-ज़रा करके कम हो रहा है, फ़ैल नहीं रहा।
पिताजी ने इसे सच माना। ज़िंदगी एन्जॉय की। हालांकि होनी टल नहीं सकी, लेकिन उम्र में
साढ़े तीन साल का इज़ाफ़ा हो गया। हंसते-खेलते बिना तकलीफ़ दिए चले गए।
हम यह नहीं कहते कि होमियोपैथी की दवा से फ़ायदा हुआ या नहीं। लेकिन उनका आशा
के विपरीत ज्यादा जीना कोई चमत्कार ज़रूर रहा।
मेरे विचार से अगर डॉक्टर और मरीज़ में परफेक्ट अंडरस्टैंडिंग हो। डॉक्टर मरीज़
को यकीन दिला दे कि वो बिलकुल ठीक हो जायेगा। उससे हंसी-मज़ाक भी करे। उसके शौक के
बारे में पूछे और रूचि ले तो मरीज़ जल्दी ठीक होता है और मेडिकल साइंस
में चमत्कार
तो होते ही रहते हैं। तूफ़ान भी मुंह मोड़ लेते हैं। लेकिन आजकल अस्पतालों में इतनी
भीड़ होती है कि डॉक्टर मुंह उठा कर मरीज़ को देखते तक नहीं। मरीज़ का पहला वाक्य
सुना और दूसरा वाक्य शुरू होने से पहले परचा पकड़ा दिया।
मगर अपवाद तो हर जगह हैं न। भीड़ भरे सरकारी हॉस्पिटलों में भी ऐसे डॉक्टर हैं
और प्राइवेट में भी। क्या बिगड़ता है डॉक्टर का। सिर्फ़ एक ईस्माइल ही तो देनी है
मरीज़ को। बदले में न जाने कितने मरीज़ों को ज़िंदगी मिल जाए। और उनकी दुआओं से
डॉक्टर को भी तो फ़ायदा होता है।
हम
अपनी बताते हैं। नौकरी के दौरान जब कोई हमें दुआ दे गया तो उस रात हमें सकून से
भरी नींद आई।---
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