Monday, February 22, 2016

ऐ मेरे दिल कहीं और चल।

-वीर विनोद छाबड़ा 
बंदे को कुत्तों से जन्मजात एलर्जी रही है, लेकिन कुत्ता पालकों से नहीं। मगर इसके बावजूद यह विडंबना यह रही कि कुत्तों को लेकर उठे बवाल में वो कई बार बेवज़ह फंसा। मुद्दे हमेशा कॉमन रहे हैं। आपके कुत्ते ने मेरे टिंगू को काट लिया। ख़बरदार, मेरे उसे कुत्ता कहा, उसका नाम चीकू है। कुत्ता पालने की तमीज़ सीखो। तेरा कुत्ता मेरे कुत्ते से ज्यादा सफ़ेद क्यों
 
बाज़ वक़्त बात बढ़ते-बढ़ते मारपीट और थाना-कचेहरी तक पहुंची। इंसान इंसान का दुश्मन बन गया। लेकिन कुत्तों को फर्क नहीं पड़ा। दुम हिला-हिला कर वैलेंटाइन के ईशारे करते रहे।
 
उस दिन बंदा फिर फंस गया। हुआ यों कि एक कुत्ता टहलाऊ को सामने से आता देख कर उनके मित्र को मज़ाक सूझी - अरे भई, सुबह-सुबह ये गधे को कहां टहला रहे हो?

कुत्ता टहलाऊ सख़्त नाराज़ हुए - अजीब अहमक क़िस्म के शख्स हैं आप। आंखें हैं या बटन? आपको ये गधा दिखाई देता है? यह हमारा झंडू है। 

मित्र माफ़ी मांग कर इतनी जल्दी फाईल बंद करने वालों में नहीं थे - अरे भई, मैं आपसे नहीं आपके झंडू से मुख़ातिब हूं।

बस फिर क्या था। मल्लयुद्ध की स्थिति आ गयी। यकीनन, मज़ाक बड़ा भद्दा था। वो भी सुबह-सुबह। राम, राम। कोई भी होता बिगड़ जाता।

अब वो दोनों ही बंदे के आजू-बाजू वाले ठहरे और अच्छे मित्र भी। दुःख सुख में हमेशा साथ रहे। मध्यस्था तो करनी ही थी। समझाया-बुझाया। चार लोग और जमा हो गये। बिना कुत्ते वाले ने कुत्ते वाले से माफ़ी मांगी। सीज़ फायर हो गया।

लेकिन दोनों के मुहं फूले रहे। शीतयुद्ध की स्थिति। जिस्म मिले, मगर दिल नहीं। कुत्ते वाले मित्र के मन में कसक रह गई कि अगले ने बेमन से माफ़ी मांगी है। रह-रह कर टीस उठती। न चाय हुई, न पानी। इधर बिना कुत्ते वाला भी खिन्न। झंडू को कुत्ता पकड़ू ट्राली में बैठा देखूं तो चैन आये। बात दोनों की पत्नियों तक पहुंच गयी। एक नया फ्रंट खुल गया। जब-तब गोलाबारी। सीज़ फायर का आये दिन उल्लंघन।

तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका के दृष्टिगत और एक आदर्श व ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते बंदे ने पहल की। दोनों पड़ोसियों को सपत्नीक चाय पर बुलाया। मोहल्ला सुधार समिति के प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी सहित दर्जन भर और गणमान्य भी। शांति के लिए पहले से तैयार की गयी ज़बरदस्त इमोशनल अपील की। बाकी लोगों ने भी स्पीचें झाड़ीं। शीतयुद्ध की बर्फ़ पिघली। दोनों पड़ोसियों के आंसू टपके। गले मिले। सारे गिले-शिकवे जाते रहे।


चाय-पानी, समोसा, जलेबी, पेस्ट्री, सेब, केला आदि पर बंदे के ढाई हज़ार रूपए खर्च हो गए। इधर मेमसाब ने एक सांस में कई प्रश्न उठा दिए - ये सब करने की क्या ज़रूरत थी? झगड़ा करें वो और वो भी मरे झंडू के नाम पर। हमारी रिश्तेदारी है उनसे क्या? पता नहीं क्यों हरदम मुझे ही देख कर भौंकता है ये मरा झंडू। 

उसी शाम खुले घूम रहे झंडू ने मेमसाब को काट लिया। पांच हज़ार के इंजेक्शन लगे। एक नया विवाद। मोहल्ला दो भागों में बंट गया। कुत्ता पालक संघ और दूसरा कुत्ता खदेड़ो संघ के पक्ष में।  

उदास बंदा कहीं और जाकर बसने की जुगाड़ में है।
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नोट - प्रभात ख़बर दिनांक २२ फरवरी २०१६ में प्रकाशित।

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