- वीर विनोद छाबड़ा
एक्सीडेंट्स से हमारा पुराना
नाता है। कई बार एक्सीडेंट हुए। लेकिन हर बार बच गए, अगले एक्सीडेंट
के लिए।
वो ३१ दिसंबर, १९९६ की शाम थी।
सर्दी पूरे शबाब पर थी। देर शाम का वक़्त था। चिराग जल उठे थे। कई लोग नए साल का जश्न
मनाने के लिए शाम होते ही सरूर में आ चुके थे। दफ़्तर का काम समेट कर हम घर लौट रहे
थे। रास्ते में पॉलीटेक्निक के कुख्यात मोड़ से हम गुज़रे ही थे - ज़िंदगी एक सफ़र है सुहाना…
अचानक हम किसी मजबूत चट्टान
से टकराए। हमारी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। स्कूटी का हैंडल हमारे हाथ से छूट गया।
हमने हवा में कई कलाबाजियां खायीं। और फिर धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरे। लगा किसी ने पटक
दिया है।
इस बीच हमें यमराज जी हो-हो
कर हंसते नज़र आये। एक किनारे चित्रगुप्त जी हाथ में पोथा-पत्री लिए खड़े दिखे। स्वर्गलोक
के तमाम देवी-देवता दोनों हाथ में पुष्प लिए दौड़े चले आये कि कोई अपना बंदा तो नहीं
आया। नरक वाले भी भयंकर अट्टहास कर रहे थे - आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा। अनेक चांद-सितारों
के दर्शन भी हुए।
यह नाना प्रकार के दृश्य
हमें क्षणिक बेहोशी के दौरान दिखे। यह तो अच्छा हुआ कि हमने जोश नहीं खोया। वरना एक
बार यमराज जी के हत्थे चढ़ गए होते तो वापसी नामुमकिन हो जाती। बहरहाल, हम धड़ाम से गिरे
और अगले ही पल उठ बैठे। इससे पहले कि हम सवाल करते कि यह कौन सी जगह है और यह सब कैसे
हुआ, एक साहब ने बताया कि आप ज़मीं पर हैं और हमें उन्होंने अहमक़ और
गलीज़ सूअर से टकराते देखा था।
हमें चोट काफी लगी थी।
घुटने, हथेलियां, कोहनियां और ठोड़ी छिल गयी
थी। हमें महसूस हो रहा था कि हमारे कई दांत हिल हैं। जबड़ा भी दर्द कर रहा है। और यह
सब तब हुआ जबकि हम हेलमेट धारण किये हुए थे। एक साहब ने हेलमेट उतारने में मदद की।
हेलमेट के सामने बड़ा सा छेद था। शायद किसी नुकीले पत्थर ने घुसने की कोशिश की थी। शुक्र
है कि आर-पार नहीं हुआ, वरना माथे पर भी गहरी चोट
होती। हो सकता है कि ज़िंदगी से हाथ धो बैठे होते और किसी नरक में अगर हज़्ज़ाम न होते
तो किसी देवता के दफ़्तर में बाबूगिरी करते होते।
बहरहाल, हम लंगड़ाते हुए
घर पहुंचे। दो नौजवान हमें घर तक छोड़ने आये। हमारी हालत देख कर पत्नी को हैरानी हुई
हम ज़िंदा कैसे हैं?
वक़्त के गुजरने के साथ-साथ
और अदम्य इच्छा शक्ति के बूते हम पंद्रह-बीस दिन में हम दौड़ने लगे। कुछ दिनों में निशानात
भी जाते रहे।
मित्रों आप सोचते होंगे
यह दर्द भरी दास्तान हमने क्यों रिपीट की। दरअसल, इसके पीछे हमारा
एक मक़सद है।
वो दर्द हमें अभी भी रह-रह
कर टीसता है जो उस दिन हमें सहारा दे रहे एक सज्जन ने दिया था - अबे, काहे पीकर चलाता
है?
इससे पहले की हम उसे जवाब
देते कि भीड़ में वो जाने कहां गुम हो गए।
तक़रीबन बीस बरस गुज़र चुके
हैं। हमें उस शख़्स की शक्ल अब भी याद है। हम उसका गिरेबान पकड़ कर यह कहने के लिए तलाश
रहे हैं - ऐ खड़ूस और मनहूस किस्म के आदमी, हम मुंह से नहीं
नज़रों से पीते हैं।
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