- वीर विनोद छाबड़ा
कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हमें अपना बचपन याद आता है। सात-आठ साल के रहे होंगे।
मां मंदिर हम भाई-बहनों को ले जाती थी। हमें नींद आती थी। मां गालों को थपथपा कर जगाया
करती थी - आंखें खुली रखना। अभी कृष्ण जी पैदा होंगे तो प्रसाद मिलेगा। लेकिन नींद
पीछा नहीं छोड़ती थी। तभी जोरदार से शोर उठता था। घंटे घड़ियाल बजने लगते थे। आकाश नारों से गूँज उठता था - जय कन्हैया लाल की।
नींद खुल जाती थी। हमें याद नहीं रहता था कि प्रसाद में हमें क्या मिला और हम कब घर
आये।
Painting by Diviya Chhabra |
बड़े हुए तो बड़ी बहन जन्माष्टमी की झांकी सजाने लगी। इसमें हम उसका साथ देते थे।
हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की। आस-पास कई जगह झांकियां सजती थीं। कहीं कृष्ण जी गोपियों संग
बांसुरी बजा रहे हैं तो कहीं माखन चुरा रहे हैं और कहीं पर मां यशोदा उन्हें झूला रही
है। हम लोग रेटिंग किया करते थे किस कॉलोनी की झांकी ज्यादा सुंदर है। सबसे बढ़िया हमें
खुनखुनजी कोठी वाली झांकी अपील करती थी और
उसके बाद पानदरीबा की रेलवे कैश कॉलोनी वाली। इस चक्कर में रात के तीन बज जाते थे।
घर लौटने पर मां डांटती थी - कहां लटखोरियां खा रहे थे।
उन्हीं दिनों हमें पता चला था कि भगवान विष्णु के दसवें अवतार थे कृष्ण। उत्तर
भारत में ज्यादातर माताएं अपने बच्चों में कृष्ण का नटखटपन देखती थीं। सबसे ज्यादा
नामकरण कृष्ण के नाम पर अथवा उनके किसी रूप के नाम पर ही हुए हैं।
अब तो हम कृष्ण जन्मोत्सव के बाद सिर्फ प्रसाद खाने के शौक़ीन हैं। पड़ोस में त्रिवेदी
जी के घर जाकर पंजीरी फांकतें हैं, जिसे मुंह में भर कर फूफा नहीं बोला जा सकता। लेकिन मित्र राजेंद्र प्रसाद पंजीरी
में न जाने क्या मिलाते हैं कि खाते खाते हम आराम से फूफा बोल सकते हैं। वहां हमें
तमाम तरह के मेवों से बना गाड़ा-गाड़ा चरणामृत भी ग्रहण करने को मिलता है। पूरा ग्लास
भर कर पिलाते हैं, बिलकुल ठंडा ठंडा कूल कूल।
इस लेख में प्रयुक्त पेंटिंग मेरी बेटी दिव्या छाबड़ा ने बनायी है। जब हम माखनचोर
की पेंटिंग की तस्वीर खींच रहे थे तो वो अलर्ट हो गए और हमें घूर घूर कर देखने लगे।
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25-08-2016 mob 7505663626
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