- वीर विनोद छाबड़ा
धर्मेंद्र ने १९५०
में एक फ़िल्म देखी थी - शहीद। हीरो थे दिलीप कुमार। फ़िदा हो गए वो उनकी एक्टिंग और
देशप्रेम के जज्बे पर। दिल में ख्वाईश उठी कि दिलीप कुमार जैसा बड़ा हीरो बनूंगा। दिन
गुज़रे, हफ्ते गुज़रे और फिर महीनों हो गए। एक दिन यह इश्क इतना प्रबल
हो गया कि वो बंबई जा पहुंचे। १९५२ का दौर था वो और तब १६ बरस के किशोर थे वो।
धर्मेंद्र दिलीप का
पता पूछते उनके बंगले के सामने जा कर खड़े हो गए। गेट पर कोई चौकीदार नहीं दिखा। धीरे
से गेट खोला। देखा हरा-भरा लॉन। वहां भी कोई नहीं दिखा। बस कुछ गार्डन चेयर पड़ी थीं।
लकड़ी की एक घुमावदार सीढ़ी दिखी। सीढ़ी ने उन्हें एक बड़े कमरे में पहुंचा दिया। एक लाल-सुर्ख
खूबसूरत और हट्टा-कट्टा पठान ईज़ी-चेयर पर आंखें बंद किये लेटा है। छाती पर खुली किताब
है। बंदा पढ़ते पढ़ते सो गया है। अरे, यह तो दिलीप कुमार
हैं! यकीन ही नहीं हुआ कि दिलीप कुमार के दीदार तस्वीर में नहीं बल्कि जीते जी हो रहे
हैं। वो उन्हें अपलक देखने लगे।
Dharmendra & Dilip Kumar |
कुछ ही क्षण गुज़रे
होंगे कि दिलीप कुमार को किसी की मौजूदगी का अहसास हुआ। उन्होंने आखें खोलीं। सामने
एक अजनबी को खड़ा पाया। वो झटके से उठे। अजनबी को क्षण भर घूरा और जोर से आवाज़ दी -
अरे भाई, कोई है?
यह सुनते ही धर्मेंद्र
के पांव तले से ज़मीन खिसक गयी। आज तो मारा गया। जिस रास्ते आये थे उसी रस्ते बहुत तेजी
से भाग निकले और एक रेस्तरां पर आकर दम लिया। ठंडी लस्सी पी। खुद को धिक्कारा कि कितनी
बड़ी बेवकूफ़ी की? कहीं पकड़ा जाता तो क्या होता?
यह दिलीप कुमार के
प्रति प्रेम की प्रेरणा ही थी कि सालों बाद धर्मेंद्र ने खुद को यूनाइटेड फिल्म प्रोड्यूसर्स
एंड फ़िल्मफ़ेअर टैलेंट हंट के सामने खड़े पाया। और वो चुन भी लिए गए। वो पुलकित थे कि
अब दिलीप कुमार के सामनेखड़े होने का सपना पूरा होगा। कुछ दिन बाद उन्हें फ़िल्मफ़ेयर
से एक फोटो सेशन शूट का बुलावा आया।
Sharrukh, Dharmendra, Dilip and Saira Bano |
एक खूबसूरत लेडी ने
धर्मेंद्र का मेकअप किया। किसी ने बताया कि यह लेडी फ़रीदा फ़ेमिना मैगज़ीन में काम करती
है और यह दिलीप कुमार की छोटी बहन है। यह सुनते ही धर्मेंद्र उसके पीछे भागे और हाथ
जोड़ कर विनती की कि प्लीज़ एक बार उन्हें दिलीप कुमार से मिलवा दें। उनसे आशीर्वाद लेना
है। फ़रीदा को तरस आया। उनकी ख्वाईश पूरी करा दी। अगले दिन वो अपने महबूब सितारे,
अपने आदर्श के सामने खड़े थे। और यह सपना नहीं था। दिलीप कुमार ने उन्हें गले लगाया
और एक्टिंग की कुछ बारीकियां समझाईं। फिल्म इंडस्ट्री की ऊंच-नीच के बारे में सतर्क
किया। कुछ अरसे बाद धर्मेंद्र ने फिल्म इंडस्ट्री में अपने पैर जमा लिए। फिर तो अक्सर
किसी न किसी समारोह में उनकी दिलीप कुमार से भेंट होने लगी।
धर्मेंद्र ने सायरा
बानों के साथ 'शादी' और 'आई मिलन की बेला'
में काम किया। तब तक सायरा मिसेस दिलीप कुमार नहीं होती थीं। दिलीप कुमार से उनकी
शादी के बाद धर्मेंद्र ने सायरा के साथ साज़िश, पॉकेटमार, इंटरनेशनल क्रूक,
आदमी और इंसान और ज्वारभाटा में काम किया। धर्मेंद्र उनसे कहा करते थे कि आप उनकी
पत्नी ज़रूर हैं, लेकिन याद रखिये कि मैं भी उनको उतना ही चाहता हूं जितना कि
आप। मैं कॉम्पीशन हूं।
धर्मेंद्र को सख्त
अफ़सोस रहा कि दिलीप कुमार से तमाम नज़दीकियों के बावज़ूद उनके साथ काम करने का मौका नहीं
मिला। बस एक बांग्ला फिल्म 'पारी' मिली, जिसमें दिलीप की गेस्ट
आर्टिस्ट की एक छोटी सी भूमिका थी। फिर एक मौका आया, सत्तर के दशक में।
एक बहुत बड़े बजट की फिल्म 'चाणक्य और चंद्रगुप्त' का ऐलान हुआ। इसमें
दिलीप कुमार चाणक्य और धर्मेंद्र चंद्रगुप्त की भूमिका करने वाले थे। बीआर चोपड़ा को
निर्देशन करना था। बड़े-बड़े इश्तिहार फ़िल्मी अख़बारों और रिसालों में छपे। तमाम काग़ज़ी
काम पूरा हुआ। फ़िल्म सर्किल में खूब चर्चा भी रही। लेकिन किसी की नज़र लग गयी। फिल्म
फ्लोर पर जाने से पहले ही दम तोड़ गयी।
फिर सालों बाद १९९७
में धर्मेंद्र को फ़िल्मफ़ेयर ने लाईफ़टाईम अचीवमेंट अवार्ड देने का फैसला किया। धर्मेंद्र
ने इच्छा प्रकट की कि वो अपने आदर्श दिलीप कुमार के हाथों से ट्राफी लेना पसंद करेंगे।
दिलीप कुमार ने उन्हें ट्राफी देते हुए कहा - जब मेरी खुदा से मुलाक़ात होगी तो मैं
उनसे शिक़ायत करूंगा कि मुझे धर्मेंद्र जैसा हैंडसम क्यों नहीं बनाया?
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Published in Navodaya Times dated 24 Aug 2016
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