-वीर विनोद छाबड़ा
बात १९९६-९७
की है। बिजली बोर्ड के हेडक्वार्टर पर रातों-रात एक दूसरी स्टेट से नया चेयरमैन तैनात
किया गया। साधारण शक्ल-सूरत और कद-बुत का सरदार। बात-चीत में भी बड़ा सॉफ़्टी। लेकिन
अंदर से सिंह इज़ किंग।
पूरे
बोर्ड में हड़कंप मच गया। बाहर से क्यों लाया गया कोई बंदा?
बड़ा विरोध हुआ। मगर इन सब से बाख़बर वो बंदा अपना काम करता रहा।
कहने लगे - मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं तो काम करने आया हूं।
वो वाकई
काम करने वाले बंदे थे। तुरंत-फुरंत एक्शन वाले। बेहद सफाई पसंद और अनुशासित। डे टू
डे वर्किंग में यकीन करना। कागज़ पर घोषणाओं वाले नहीं। कुछ ही दिनों में सोहल साब की
दहशत या यूं कहिये धमक यों पूरे प्रदेश में महसूस की जाने लगी। मगर हेडक्वार्टर पर
तैनात अधिकारियों और कर्मचारियों को उनसे बहुत दिक्कत हुई।
किसी
भी वक़्त वो किसी सेक्शन में पहुंच चुपचाप कोने में बैठ जाते। नज़ारा करते कि कैसे और
किस रफ़्तार से काम हो रहा है। चूंकि वो बाहर से आये थे सो उन्हें शुरू शुरू में कोई
पहचानता नहीं था। सब सोचते थे कि ऐवें ही कोई बंदा है। जब तक उनका असल परिचय ज्ञात
होता, तब तक
देर हो चुकी होती थी। सब कुछ सोहल साब के दिलो दिमाग में क़ैद हो चुका होता था।
मज़े की
बात तो ये थी कि सोहल साब कोई एक्शन नहीं लेते थे। सिर्फ पूछते थे कि ये चिट्ठी कब
रिसीव हुई और इसके डिस्पोजल का सिस्टम क्या है?
इसमें कितना वक्त और
चाहिए? ये टाइपराइटर
पर, फाइलों
पर और कुर्सी पर धूल की परतें कबसे चढ़ी हैं? घर में भी इसी ढंग से रहते हैं? ये इतने सारे कागज़ रैक्स में ठूंसे नज़र
क्यों आ रहे हैं? वो किसी
भी वक़्त कैंटीन पहुंच जाते थे। खड़े होकर चाय पीते। कर्मचारियों से गप-शप करते। जब उनको
कोई पहचान लेता तो सबकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती।
अधिकारियों
को सुझाव देते कि आपकी टेबुल खिड़की के पास होगी और पर्दे हटे होंगे तो भरपूर नेचुरल
रौशनी मिलेगी। इससे बिजली की बचत होगी।
और कुछ
ही दिनों में हमारे बोर्ड ऑफिस का काया कल्प हो गया। ठीक दस बजे १००% मौजूदगी। हर वक़्त
आबाद रहने वाली कैंटीन में सन्नाटा। कुर्सी-मेज़,
अलमारियां, खिड़कियों के शीशे, फर्श आदि सब साफ़-सुथरे और टनाटन।
फाइलों
का डिस्पोजल जल्दी होने लगा। चुपचाप हर कर्मी काम करता हुआ दिखता। अरे भाई धीरे बोलो
कहीं सरदार न आ जाए। सोहल साब ने इस बावत कोई आदेश नहीं दिया न स्पीच दी। मातहत अधिकारी
और कर्मचारी स्वतः स्फूर्त और दुरुस्त हो गए। सफाई और मौजूदगी के संबंध में जो भी आदेश
हुए, वो नीचे
के अधिकारियों ने अपने स्तर से मातहत कर्मचारियों पर रुआब गांठने के लिए किये।
एक बात
और याद आती है। सफाई अभियान के दौरान दर्जनों ट्रक लोड रद्दी निकली। शराब की ढेर खाली
बोतलें, चूहों
के बेशुमार कंकाल, टूटे
कांच आदि भी निकले। इसे देख कर सोहल साहब बोले थे - यारों हैरान हूं कि ऐसे माहौल में
इंसान कैसे रहता है?
लेकिन
सोहल साहब का जलवा कुछ ही महीने चल पाया। तत्कालीन उ.प्र. सरकार ने उन्हें नामालूम कारणों से हटा दिया। लोगों का
कहना था कि वो ईमानदार ही नहीं, कड़क भी थे। मंत्रियों-संतरियों के नागवार आदेश और 'फ़रमाईशें' पूरी
करने में नाक़ाम रहे। इसलिए उन्हें बिदा तो होना ही था।
नए चेयरमैन
आये। सोहल साब को हूट किया गया। सुना कि उन्हें जबरन सीट से उठाया गया और उनके ब्रीफ
केस की तलाशी भी हुई थी। उसमें स्वामी विविकानंद की एक तस्वीर भर निकली जिसे वो अपने
साथ लाये थे। वो भारी क़दमों से लिफ्ट की ओर चल पड़े। कोई उन्हें विदा करने नहीं गया।
एक रिक्शे पर बैठे - स्टेशन चलो। चल उड़ जा रहे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना...
नोट
- उनके जाने के कुछ ही दिन बाद बिजली बोर्ड अपनी चिर-परिचित सुस्त चाल और बेढंगे ढर्रे
पर लौट आया।
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02-08-2016 mob 7505663626
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