-वीर विनोद छाबड़ा
भारतीय सिनेमा की सबसे
महंगी और कामयाब क्लासिक फिल्मों की अगर फ़ेहरिस्त तैयार की जाए तो दो राय नहीं कि नंबर
एक पर और कोई नहीं 'मुगल-ए-आज़म' ही रखी जायेगी। इसके भव्य सेट, बेजोड़ गीत-संगीत,
छायांकन, नृत्य निर्देशन, निर्देशन, संवाद, स्क्रीनप्ले सब अजूबा
ही हैं। पूरे दस साल लग गए बनने में। इस दौरान इसके निर्माण से जुड़ा हर आर्टिस्ट और
आर्टिसन आकंठ समर्पित रहा।
इसके निर्देशक थे के.आसिफ़
और प्रोड्यूसर थे एक पारसी, शापूरजी पलोनजी मिस्त्री। वो बंबई के एक कामयाब बिल्डर थे। बताते
हैं कि पैसे की नदिया बहती थी उनके पिछवाड़े।
सबसे ज्यादा खर्च हुआ
बहुचर्चित शीश महल के सेट पर। पूरे दो साल लगे इसे बनाने में। इसमें इस्तेमाल हुआ ज्यादातर
शीशा खासतौर से बेल्जियम से मंगाया गया। फ़िरोज़ाबाद से आये बीसियों विशेषज्ञ क्राफ्ट्समैन
और आर्टिसन इसे तराशने में दिन-रात लगे रहे। फिल्म के बजट का आधे से ज्यादा तो इसी
के निर्माण पर खर्च हुआ। इसकी भव्यता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसकी लंबाई
थी १५० फिट, चौड़ाई ८० फिट और ऊंचाई थी ३५ फ़ीट थी। प्रोड्यूसर शापूरजी जी
को यकीन था कि 'मुगल-ए-आज़म' को कोई मामूली फ़िल्म नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक
कृति बनने जा रहे हैं। टाइम और खर्च की तो ख़ैर उन्हें परवाह थी नहीं।
आख़िर शीशमहल का सेट
तैयार हो गया। 'प्यार किया तो डरना क्या…'
गाने के फिल्मांकन की तैयारी चल रही थी। बहुत लंबा शेड्यूल तय हुआ। दुनिया जानती
थी कि के.आसिफ़ ज़बरदस्त परफेक्शनिस्ट हैं। शीश महल में शूटिंग की बहुत दिक्कत हुई। शीशों
से रोशनी परावर्तित होती थी। बड़े बड़े एक्सपर्ट आये। डेविड लीन सहित तमाम हॉलीवुड योद्धाओं
ने राय देने की बजाये मज़ाक उड़ाया। लेकिन आसिफ़ धुन के पक्के थे। छायाकार आरडी माथुर
ने जुगाड़ ढूंढ निकाला।
लेकिन जाने क्या हुआ
कि किसी ने शापूरजी के कान भर दिए। दो साल लग गए सेट बनने में और करोड़ खर्च कर दिए।
इतने में तो कई फ़िल्में बन जातीं। इस सेट को गिरा दीजिये, ताकि बाकी खर्च से
बच जाएं। आसिफ तो अपना घर भर रहा है।
शापूरजी को शक़ हो गया
कि कहीं कुछ गोल-माल हो रहा है। उनकी हिम्मत भी जवाब दे रही थी। उन्होंने सोहराब मोदी
से संपर्क किया जो पुकार, सिकंदर, पृथ्वी बल्लभ, झाँसी की रानी,
मिर्ज़ा ग़ालिब, नौ-शेरवाने-आदिल, यहूदी, राजहठ और शीश महल जैसी
हिस्टॉरिकल और कॉस्ट्यूम फ़िल्में बनाने में माहिर थे। बल्कि दूर-दूर तक कोई उनका सानी
नहीं था। और फिर आसिफ़ के मुक़ाबले सोहराब मोदी बहुत सीनियर भी थे।
शापूरजी ने के.आसिफ़
के हाथ से कमान लेकर सोहराब मोदी को कमान थमाने की पूरी-पूरी तैयारी कर ली। वो उन्हें
सेट दिखाने ले गए। उस वक़्त आसिफ़ भी वहां मौजूद थे। शापूरजी ने पूछा - आसिफ़ इस गाने
को शूट होने में कितना वक्त लगेगा।
आसिफ ने चुटकी बजा
कर सिगरेट की राख झाड़ी - तीस दिन में। छह दिन ज्यादा भी लग सकता है।
सोहराब मोदी ने बाआवाज़-ए-
बुलंद कहा - मैं इसे छह दिन में पूरा कर सकता हूं।
इस पर आसिफ़ ने चुटकी
ली - जनाब, पड़ोस के स्टूडियो में जादुई फिल्मों के माहिर नानूभाई शूटिंग
कर रहे हैं। वो इसे दो दिन शूट कर देंगे।
यह कह कर आसिफ सेट
से चले गए। सोहराब मोदी भी यह कह कर चले गए कि आसिफ़ आपका वक़्त और पैसा बर्बाद रहे हैं।
इधर मधुबाला को ख़बर
हुई तो उन्होंने कहा कि मैंने के.आसिफ के कहने पर फ़िल्म साईन की है। अगर वो नहीं रहेंगे
तो मैं भी फ़िल्म छोड़ दूंगी। यह सुनते ही शापूर जी के हाथों से मानों तोते उड़ गए। दूसरी
मधुबाला कहां लाऊंगा? दिलीप कुमार भी इस हक़ में नहीं थे कि आसिफ़ हटाये जायें। उधर
सारे आर्टिसन भी खिलाफ हो गए।
शापूरजी को अपनी गलती
का अहसास हुआ कि आसिफ़ शाहखर्च ज़रूर है, मगर फिल्म के हक़ में।
उन्होंने आसिफ से निर्देशन लेकर मोदी को देने का इरादा त्याग दिया। बाकी तो हिस्ट्री
है। अगर ऐसा न होता तो 'मुगल-ए-आज़म' भले बन जाती, मगर क्लासिक न बनती।
और दुनिया जानती है कि शीशमहल का सेट और उस पर फिल्माए गए गाने और सीन फिल्म की जान
थे। यह सेट कई साल तक टूरिस्ट आकर्षण बना रहा।
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Published in Navodaya Times dated 17 Aug 2016
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