-वीर विनोद छाबड़ा
दो राय नहीं कि गाना तभी हिट होता है जब गीतकार और संगीतकार में परफेक्ट ट्यूनिंग
हो। इस संदर्भ में पचास के दशक की सबसे हिट जोड़ी सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी
की थी। गीत-संगीत की समझ रखने वालों को इनकी फिल्मों का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार रहता
था। दोनों ने मिल कर १६ फ़िल्में की और इनके संगम से एक से बढ़ कर एक ऊंचे मयार के अर्थपूर्ण
गाने जन्मे - ठंडी हवाएं लहरा के आएं.…रात है जवां तुम हो कहां कैसे बुलाएं…तुम न जाने किस जहां में खो गए.…तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले.…ये रात ये चांदनी फिर कहां…जायें तो जायें कहां …तेरी दुनिया में जीने से बेहतर है के मर जायें…चुप है धरती चुप है
चांद सितारे…जीवन के सफ़र में राही मिल जाते हैं बिछुड़ जाने को.…जिसे तू कबूल कर ले.…आन मिलो आन मिलो श्याम
सांवरे…दुखी मन मेरे सुनो मेरा कहना…ये महलों, ये तख्तों ये ताजों की दुनिया…जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहां हैं.…जाने वो लोग थे कैसे जिन्हें प्यार से प्यार मिला…
Sahir |
'प्यासा' के तो सभी १० गाने हिट हुए। बेहद तारीफ़ हुई। बस यहीं नज़र लग गयी। मतभेद और टूट
शुरू हो गयी। इतिहास की किताबों में जो लिखा है उसके अनुसार कई कारण थे। लेकिन मुख्य
रूप से मुद्दा यही था कि कौन बड़ा? गीतकार या संगीतकार? दोनों ही अपने फ़न के माहिर और महा ज़िद्दी।
क्रिटिक्स ने 'प्यासा' के संगीत के मुक़ाबले साहिर के गानों की ज्यादा तारीफ़ की। खुद साहिर ने भी खुलेआम
कहा कि 'प्यासा' की कामयाबी में उनके गानों की अहम हिस्सेदारी रही है। 'जिन्हें नाज़ है हिन्द
पे वो कहां हैं.…' ने आमजन को झिंझोड़ा ही, भारत के हुक्मरानों तक को हिला दिया। फिल्म के पोस्टरों पर भी सचिन दा से पहले
साहिर का नाम छपा। देश के कई थिएटरों में जब यह गाना स्क्रीन पर आया तो पब्लिक उठ कर
खड़ी हो गयी - वंस मोर। थिएटर मालिकों को मजबूर होकर फ़िल्म रिवाइंड करनी पड़ी थी, एक बार नहीं तीन बार।
मतभेद का एक कारण ये भी बताया गया कि गुरूदत्त 'जाने वो लोग थे कैसे
जिन्हें प्यार से प्यार मिला…' मो.रफ़ी से गवाना चाहते थे। साहिर भी इसी ख्याल के थे। यह गाना जब साहिर लिख रहे
थे तो उनके ज़हन में रफ़ी थे। सारी तैयारी हो गयी। लेकिन ऐन रिकॉर्डिंग के मौके पर सचिन
दा ने हेमंत कुमार को खड़ा कर दिया। उन्हें समझाया गया कि रफ़ी से बात हो चुकी है। लेकिन
सचिन दा पसड़ गए। यों संगीतकार को अख्तियार होता है कि वो किसी से भी गवाए। सचिन दा
बहुत सीनियर थे। आख़िर में वही भारी पड़े। दो राय नही कि हेमंत दा ने भी बहुत बढ़िया गाया।
हेमंत दा मखमली आवाज़ के 'जादूगर' कहलाते थे।
प्रथा यह है कि पहले धुन बनती और बाद में गीत तैयार होता है। लेकिन साहिर के साथ
उल्टा होता था। ज्यादतर मौकों पर उनके पास हर सिचुएशन के लिए पहले से ही गीतों का खज़ाना
मौजूद रहता था। कभी-कभी तो उनके गीतों पर संगीतकारों को धुनें तैयार करनी पड़ीं। और
बाहर खबर भी बन कर जाती, वाह साहिर वाह। शायद सचिन दा को यह बात अखरती थी। सचिन दा ही क्यों किसी भी संगीतकार
को यह पसंद नहीं था। यह बात जग-ज़ाहिर थी कि साहिर के फ़िल्मी नग्मों को पंख सचिन दा
की 'नौजवान' से मिले थे।
अलावा इसके साहिर का कद भी बहुत ऊंचा था। सिर्फ़ फिल्म ही नहीं इल्मो-अदब में भी
बहुत मान था उनका। इंक़लाबी शायर थे। हमेशा ज़ुल्म के विरुद्ध वो लड़ते रहे।
इन दोनों के फुटबॉल साइज़ ईगो का सबसे बड़ा नुकसान अच्छे नग्मों के शौकीनों ने ही
झेला। तमाम कोशिशें भी दोनों को एक छत के नीचे लाने में नाकाम रहीं।
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Published in Navodaya Times dated 06 Aug 2016
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