-वीर विनोद छाबड़ा
भारतीय सिनेमा महान
संगीतकार नौशाद साहब के बचपन का ज्यादातर हिस्सा लखनऊ में गुज़रा। उनका जीवन बहुत नाटकीय
रहा। पिता कोर्ट क्लर्क थे। न जाने कहां से संगीत का शौक चढ़ गया। एक संगीत मंडली के
सदस्य बन गये। वो मूक फिल्मों का दौर था। संगीत मंडली पर्दे के पास बैठ कर फिल्म के
ज़रूरी दृश्यों को संगीत से हाईलाईट करती थी। एक हारमोनियम की दुकान पर भी काम करते
थे ताकि इसी बहाने संगीत सीखने को मिले। उनके वालिद मोहतरम को उनका गाना-बजाना कतई
रास नहीं आया। नौशाद बंबई भाग आये। और आगे तो हिस्ट्री है कि नौशाद अली कितने बड़े आदमी
बने। लेकिन उनके वालिद को बस सिर्फ इतना इल्म था कि बेटा ठीक-ठाक कमा-धमा रहा है। उन्हें
बेटे की शादी की फ़िक्र सताई।
नौशाद के वालिद की
माली हैसियत भले कम थी लेकिन अपनी ईमानदारी और नेकनामी के कारण लखनऊ में उनकी अच्छी
इज़्ज़त थी। एक अमीर और ऊंचे घराने में शादी की बात चली।
इधर नौशाद साहब ज़रूर
एक कामयाब म्यूजिक डायरेक्टर थे मगर दौलत के मामले में लड़की वालों के मुक़ाबले ग़रीब।
यह बात नौशाद साहब के वालिद ने पहले से ही ज़ाहिर कर दी थी। समधी ने इस पर कोई ऐतराज़
नहीं किया। उन्होंने कहा - वो आपका बेटा है, इससे बड़ी बात मेरे
लिए और क्या हो सकती है। बस इतना ध्यान रखियेगा कि हमने शहर के चुनींदा शाही अमीर बुलाये
हैं, लिहाज़ा बारात शानदार होनी चाहिए।
Naushad Ali |
समधी के ऊंचे कद के
मद्देनज़र नौशाद के वालिद मोहतरम ने कहीं से एक मोटर कार का जुगाड़ किया। हैसियत से बढ़
कर बारात सजाई। बड़ा बैंडबाजा और गैस बत्ती का इंतजाम किया। सब कुछ प्लान के मुताबिक
चल रहा था। लेकिन सहसा के गड़बड़ हो गयी। हुआ यों कि मोटर ने आगे चलने से इंकार कर दिया।
पेट्रोल भी पूरा था। बोनट खोल कर देखा गया। रेडियटर में भी काफी पानी था और इंजिन में
तेल भी। साथ में चल रहे मिस्त्री ने भी बहुतेरी कोशिश की। लेकिन मोटर ने न स्टार्ट
होना था और हुई। उस वक्त बारात दुल्हन के घर से कोई फर्लांग भर दूर थी। आख़िर फैसला
हुआ कि मोटर को धक्का लगा कर ले चलो।
जब तक बारात जब दुल्हन
के द्वार पर लगती, खबर फ़ैल गयी कि मोटर को धक्का देकर लाया जा रहा है। नौशाद के
होने वाले ससुर इस खबर से सख्त सदमा लगा। पूरे खानदान के सामने नाक कट गयी ये तो। इस
बीच उन्हें यह भी इल्म हो चुका था कि दामाद मियां फिल्मो में बाजा बजाते हैं। उनके
खानदान में संगीत का दर्जा बहुत नीचा था। समधी की हैसीयत उनसे काफी कम है, यह तो मालूम था मगर
यह इल्म नहीं था कि इतनी गयी गुज़री है कि खराब मोटर को धक्का देना पड़ रहा है। सारे
उसूलों को तोड़ते हुए वो दामाद के साथ खाने पर शामिल नहीं हुए। बहरहाल, इधर निकाह की रस्में
पूरी हुईं। फिर रुखसती भी हो गयी। लेकिन ससुर जी की नाराज़गी खत्म नहीं हुई।
शादी के बाद जब नौशाद
साहब जब पहली मरतबे ससुराल गए तब भी ससुर का मुंह टेढ़ा ही रहा। खुद को एक कमरे में
बंद कर लिया। मिलने भी नहीं आये। नौशाद साहब को ये गवारा नहीं हुआ। कम उम्र ले बावजूद
अपने ससुर के मुकाबले वो बहुत सुलझे विचार के और शांत स्वभाव के थे। उन्होंने जैसे-तैसे
ससुर साहब को गुफ्तगू के लिए राज़ी किया। नौशाद साहब ने सवाल किया - मैं आपकी बेटी को
मैं हर समय और हर हाल में खुश रखूं यह ज़्यादा ज़रूरी है या यह कि उसे दुनिया का हर ऐशो-आराम
दूं? यह बात आप अपनी बेटी से भी पूछ सकते हैं कि मेरी मौजूदा माली
हालत में वो खुश है कि नहीं।
तीर सीधा निशाने पर
लगा। ससुर साहब समझ गए कि असली दौलत क्या होती है। उन्हें बहुत अकलमंद और हीरा दामाद
मिला है। उनकी बेटी बहुत खुशनसीब है।
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Published in Navodaya Times dated 10 Aug 2016
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