-वीर विनोद छाबड़ा
१९४३ में बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष पर एक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने एक दस्तावेजी फिल्म
बनी थी - धरती के लाल। ज़मींदारों और जमाखोरों के लिये तो वरदान साबित हुआ। वो अशिक्षित
और भोले किसानों की अनाज के बदले ज़मीने हड़प लेते हैं।
हज़ारों लोग कलकत्ता पलायन करते हैं। यहां भी जमाखोर हैं। इंसान की शक्ल में भेड़िये
गांव में भाई-भाई की तरह रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम में सांप्रदायिक भावनायें भड़काते
हैं। हिन्दू का रिलीफ़ कैंप अलग है और मुसलमान का अलग। दोनों कैंप में यदा-कदा और अलग-अलग
भोजन बंटता है। हिन्दू कैंप में भोजन बंटता है तो वो मुसलमान को नहीं घुसने देता। इसी
तरह मुसलमान भी अपने कैंप से हिन्दू को भगाता है।
कई लोगों को काम नहीं मिला। अस्तित्व की रक्षार्थ तन बिका। कइयों ने भीख मांगी
और कई को झूठन पर बसर करनी पड़ी। एक सीन में झूठन कूड़ेदान में फेंकी जाती है। हक़ ज़माने
के लिए कुत्ता और भूखा इंसान भेड़िये की मानिंद टूट पड़े। एक भिखारी हंसता है - सुना
था बंदर से इंसान बना है। मगर आज इंसान को इंसान से कुत्ता बनता हुआ देख रहा हूं। समाज
सुधारकों और नेताओं ने कहा कि आज़ादी का दौर होता तो ऐसा कतई न होता।
आखिर १९४७ में आज़ादी मिली। अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है। तबसे
अब तक ७० बरस गुज़र चुके हैं। आर्थिक सुधारीकरण की दिशा में कई लंबी और ऊंची छलांगें
लगाने के बावजूद ओलंपिक में गोल्ड न मिला कभी। अलबत्ता सामाजिक ढांचा कमजोर हो गया
है। हर स्तर पर अलगाव और बिखराव के अनेक सुर सुनाई दे रहे हैं।
१९५७ की एक और दस्तावेज़ी फिल्म 'प्यासा' का दृश्य याद है। ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियां,
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियां, ये बिकती हुई खोखली
रंग-रलियाँ, जिन्हें नाज़ है हिंद पे वो कहां हैं...थिएटर में वाह वाह के साथ ज़बरदस्त वन्स मोर
हुई। मजबूरन प्रोजेक्टर पर रील बैक हुई। इसे तीन बार दिखाया गया। उस दौर की सरकार का
सर भन्ना गया। ५९ साल के बाद भी स्थितियां जस की तस हैं।
आज़ादी ही आज़ादी है। बोलने, लिखने और दिखाने की भी। मगर सहनशीलता नहीं है, कभी कोई वर्ग नाराज़
हो जाता है तो कोई संप्रदाय। धर्म के स्वयं-भू ठेकेदार भी रातों को चौकीदारी के बहाने
ठुकाई, लूट-पाट और बलात्कार करते हैं। सरकार को गांधी जी के तीन बंदरों का सहारा मिल जाता
है। न्यायपालिका हस्तक्षेप करती है। सड़क के गड्ढे भरो, नाली बनाओ, अतिक्रमण हटाओ, कर्मचारियों को वेतन
दो, बलात्कारी और भ्रष्टाचारी को पकड़ो। मंत्री जी को सदन में शिकायत होती है कि न्यायपालिका
विधायिका के काम में दखल दे रही है। जज साहब को भी मजबूरन पब्लिक प्लेटफॉर्म पर कहना
पड़ा कि अगर आप अपना काम करें तो हमें क्या ज़रूरत है कि बीच में आयें।
हां, एक बड़ा बदलाव आया है। अब रिश्वत लेने पर पकडे जाने वाला गर्व से सर उठा कर बचाव
करता है। लेते तो सभी हैं लेकिन जो पकड़ा गया सो बेईमान। कोई बात नहीं, रिश्वत देकर छूट भी
जाएंगे। बलात्कारी और गाली-गलौज करने वाला भी खुद को पाक-साफ़ बताते हुए कहता है कि
गांधी जी तो जेल गये थे। देखिये, गांधी जी कितने ग़लत
संदर्भ में प्रासांगिक हैं।
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Published in Prabhat Khabar dated 15 Aug 2016
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