-वीर विनोद छाबड़ा
सिनेमा देखने का शौक हद दर्जे का रहा। पहला लेख सिनेमा से ही संबंधित था।
होता यह था कि फ़िल्म देख कर लौटा। सबसे पहले इत्मीनान किया कि किसी को ख़बर तो नहीं
हुई। भोजन किया और थोड़ा आराम किया शाम हुई नहीं कि दोस्तों से गप-शप मारने और मस्ती
करने निकल गया। सात बजे लौटा। कुछ होमवर्क किया। रात खाने के बाद पढ़ने के बहाने डॉयरी
लिखने बैठ गया। फ़िल्म का नाम। किस क्लास में। कौन सा शो और किस दोस्त के साथ। फ़िल्म
की स्टार कास्ट, गीत-संगीत आदि संपूर्ण विवरण। और साथ में यह भी कि फिल्म कैसी रही।
Vir Vinod Chhabra in 1972 |
एक दिन मां ने डॉयरी पकड़ ली। एक एक हर्फ़ पढ़ा। स्कूल जाकर शिकायत की। बच्चा बिगड़
रहा है। आप लोग ध्यान क्यों नहीं देते?
सब फ़िल्में देखता है स्कूल से भाग कर। प्रिंसिपल साहब ने बुलाया
और भरी सभा में दो कंटाप रसीद दिए। उन दिनों दो से कम कंटाप का तो रिवाज़ ही नहीं था।
फिर क्लास टीचर के पास भेज दिया। उन्होंने ने भी कान उमेठ दिये। दर्द से बिलबिला उठा
मैं।
पिताजी दौरे से लौटे। मामला उनकी अदालत में पेश हुआ। उन्होंने तफ़सील से सब सुना।
माता जी को समझाया कि किसी की भी डॉयरी नहीं पढ़नी चाहिए। गंदी बात। और फिर डॉयरी पढ़ते-पढ़ते
कहने लगे - बहुत अच्छा लिखा है। इसका फ़ायदा क्यों नहीं उठाते? अख़बार में छपने भेज
दो?
आईडिया हिट कर गया। लिखा - १९६७ की फ़िल्मों पर एक नज़र। लखनऊ के स्वतंत्र भारत में
छपा। इसके बाद अनेक लेख छपे। कॉलेज में भी धाक जम गयी। उन्हीं दिनों मेरे हाथ एक अंग्रेज़ी
की पुस्तक लगी। फ़िल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं से संबंधित थी। मैंने भारतीय फिल्मों
के परिपेक्ष्य में इसका रूपांतरण कर डाला। फ़ायदा यह हुआ कि फिल्म निर्माण की थ्योरी
समझ में आ गयी। इसी पर कई लेख लिख डाले।
फ़िल्म देखते हुए मैं कल्पना भी करता चलता कि यह शॉट किस एंगल से लिया गया? फेड आउट क्या है और
फेड इन क्या है? मन ही मन ज्ञान भी बघारता चलता। इस शॉट को ऐसे नहीं वैसे एडिट करना चाहिये था।
हीरो को यह नहीं वो बोलना चाहिये।
ऐसे ही कई साल गुज़र गए। मैं यूनिवर्सिटी पहुंच चुका था। हमारे एक पत्रकार मित्र
होते थे। सिनेमा के बेहद शौक़ीन। उन्होंने हमसे निर्माण संबंधी ढेर जानकारी ली। मेरे
लेख भी पढ़े। उन दिनों अंग्रेज़ी की 'The
Good, The Bad And The Ugly' रिलीज़ हुई थी मेफेयर
में। बेहतरीन फ़िल्म। मैं देखने पहुंचा। मुझे हैरानी हुई कि मेरे वो पत्रकार मित्र भी
वहां मौजूद थे। एक कोने में खड़े थे,
लड़कियों के झुंड से घिरे। दोनों हाथों की उंगलियों से हवा में
फ्रेम बनाते हुए कुछ समझा रहे। मैं समझ गया कि फ़िल्म निर्माण की बारीकियों से संबंधित
किसी एंगल को समझा रहे हैं। उन्होंने मुझे देखा भी। लेकिन उपेक्षा कर दी। मेरी क़िस्मत
में ऐसे दुखद मोड़ पहले भी आ चुके थे। मुझे ऐसे त्रासद सीन और भी मजबूत बनाया करते थे
और जानकार भी। अपने में देवदास के भी दर्शन कर लेता था।
बहरहाल, मैं चुपके से सिनेमा हॉल में घुसा और अपनी निर्धारित सीट पर धंस गया।
---
25-08-2016 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
अच्छा संस्मरण!
ReplyDeleteबहुत खूब वीर जी..
ReplyDeleteजिदंगी और जिंदादिली ...शुभकामनाएं