Wednesday, November 23, 2016

सिनेमा में ब्लैकमनी

- वीर विनोद छाबड़ा 
काले धन का जब भी नाम लिया जाता है तो नज़र स्वतः सिनेमा जगत की और घूम जाती है। माना जाता है कि कोई भी फिल्म बिना काले धन के नहीं बन सकती। एक ज़माना था जब फिल्म की शूटिंग में इस्तेमाल होने वाली फिल्म की रील, जिसे रॉ स्टॉक कहते थे, विदेश से आयात की जाती थी। विदेशी मुद्रा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। परफेक्शन में यकीन रखने वाले बड़े स्टार रिटेक पे रिटेक पर ज़ोर देते थे। नतीजा निर्धारित रॉ स्टॉक का कोटा तो फिल्म के आधे सफर में खर्च हो जाता था। विदेशी मुद्रा के मामले सरकार बहुत फ़कीर और कंजूस थी। लेकिन इसके बावज़ूद निर्माता दो नंबर के रास्ते से इंतज़ाम करता था। स्पष्ट था कि यह ब्लैक से ही होता था।
सर्वविदित है कि देश में कालाधन बहुत है। इस काले धन को निवेश करने और सफ़ेद बनाने के लिए कई मंडियां हैं। लेकिन सबसे आकर्षक और बढ़िया फ़िल्मी दुनिया है। सपनों की जादुई दुनिया है। यों भी यहां पैसा, शबाब और शराब सब कुछ प्रचुर मात्रा में है। ऐसा नहीं कि सिर्फ काले धन को सिनेमा की ज़रूरत है, सिनेमा को भी काले धन की ज़रूरत है। दोनों एक-दूसरे के पक्के साथी हैं। बैंकों और धन्ना सेठों से कर्ज लेना बहुत महंगा है, जबकि कालेधन के कारोबारी इस मामले में दरियादिल हैं। लेकिन शर्त है कि सौ करोड़ में बीस करोड़ कागज़ पर और बाकी अस्सी करोड़ नकद, मेज़ के नीचे से और कोई रसीद नहीं। निर्माता की मजबूरी है। सबसे ज्यादा परेशानी तो उसे नामी आर्टिस्टों से होती है। उनको आधी पेमेंट चेक से चाहिए और बाकी बिना रसीद कैश। कुछ बड़े आर्टिस्ट तो किसी क्षेत्र के वितरण अधिकार ले लेते हैं। कुछ लोग हीरे-जवाहरात के शौक़ीन होते हैं। काले धन निवेशकों को भी लालच दिया जाता है। बदले में किसी मुल्क के वितरण अधिकार दे दिए। काला धन वितरकों के माध्यम से भी आता है। कई सिनेमा मालिक लैब से चोरी हुए फिल्म प्रिंट दिखाते हैं। यह कमाई काली होती है।
Nargis in Shri 420
काली कमाई से सिर्फ कलाकार ही अमीर नहीं होते, बल्कि निर्माता और यूनिट से जुड़े तमाम अहम लोग भी बहती गंगा में हाथ धोते हैं। बताया जाता है कि सेट बनाने में इस्तेमाल होने वाले सामान दुगने-तिगुने दाम पर खरीदे जाते हैं। आवागमन के लिए टैक्सियों का भाड़ा और जूनियर आर्टिस्टों के पेमेंट के नाम पर फ़र्ज़ी भुगतान के बिल और प्राप्ति रसीदें बनती हैं। इसके अलावा महंगा लंच सर्व होता है और यूनिट के सदस्यों का इलाज़ भी होता है। ज़ाहिर है यह और यह सब फ़र्ज़ी होता है। और इस फर्ज़ीवाड़े को अंजाम देने वाले निर्माता के कोई 'अपने' ही होते हैं।
अंडरवर्ल्ड को तो फिल्मों में कालाधन निवेश करना बहुत ही भाता है। सन २००१ की सलमान खान-रानी मुखर्जी-प्रिटी जिंटा की हिट फिल्म 'चोरी चोरी चुपके चुपके' महीनों सीबीआई के पचड़े में फंसी रही, जब पता चला कि इसमें माफिया छोटा शकील ने फाइनांसर भरत शाह के माध्यम से कालाधन लगाया है। भरत शाह हफ़्तों सीखचों के पीछे भी रहे।
वो ज़माना याद आता है जब आर्टिस्ट मुफलिसी में मरता था। लेकिन आज की फ़िल्मी लोग इल्मी न सही लेकिन समझदार बहुत हैं। वो कमाई के साथ-साथ काले धन को खपाना भी जानते हैं। खबर है कि प्रॉपर्टी और व्यापार में निवेश करते हैं। हीरे-जवाहरात खरीदते हैं। रेस्तरां और ब्यूटी पार्लर चलाते हैं। हवाला के ज़रिये विदेश में पैसा जमा होता है। पिछले दिनों पनामा लीक्स से पता चला था कि कई नामी फ़िल्मी हस्तियों ने विदेशों में कंपनियां खोल रखी हैं। इनके माध्यम से भी फिल्मों में पैसा निवेश होता है और कमाई बाहर जाती है। कुल मिला फिल्म व्यापार एक  भूल-भुलैयाँ है, जिसमें पता लगाना बहुत मुश्किल है कि कहां-कहां से पैसा आता है? कैसे कैसे खर्च होता है? किस किस में किस प्रतिशत से हिस्सा-बांट होती है? और फिल्म की कमाई से काले धन को सफ़ेद कैसे किया जाता है?
पचास और साठ के दशक में भी फ़िल्मी दुनिया पर काले धन का दाग लगा था। कई बड़ी फ़िल्मी हस्तियों किए के घर इनकम टैक्स ने छापा मारा था। माला सिन्हा के बाथरूम की फाल्स सीलिंग हटाई गयी तो कई हज़ार रूपये मिले थे। दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन आदि के मामले इनकम टैक्स में महीनों चलते रहे। वो दौर समाजवादी सोच का था। फ़िल्मी दुनिया भी इससे प्रभावित थी। राजकपूर, देवानंद, गुरुदत्त, बीआर चोपड़ा, व्ही. शांताराम समाज को सुधारने का बीड़ा उठाये हुए थे। नवकेतन की 'कालाबाज़ार' का हीरो रघु (देवानंद) सिनेमा के टिकेट ब्लैक करने का गैंग चलाता था। इसकी कमाई से वो बहुत बड़ा आदमी बन गया। लेकिन नायिका (वहीदा रहमान) के प्रेम के असर था कि उसने यह धंधा छोड़ ईमान की राह चुन ली। मगर कुछ साल पहले 'जन्नत' का हीरो इमरान हाशमी, जो मैच फिक्सिंग का एक्सपर्ट था, भाग्यशाली नहीं रहा। वो प्रेम की खातिर काली कमाई की इस दुनिया को छोड़ना चाहता था, लेकिन मारा गया।
Devanand in Kala Bazaar

फिल्मों का इतिहास खंगाला जाए तो पता चलता है कि दर्जनों फ़िल्में बनी हैं जिनकी पृष्ठभूमि में माफिया या कालाधन या दोनों हैं। एक 'कालाबाजार' अनिल कपूर-जैकी श्रॉफ की भी थी जिसमें सरकारी क्लर्क कादर खान मकान का नक्शा पास करवाने की एवज़ घूस लेता है। उसका तरीका विचित्र है। ग्राहक को वो चाय वाले से पास भेजता है। दो चम्मच चीनी वाली चाय ले आओ। यानि चाय वाले को दो सौ रुपये दे दो। राजकपूर की 'श्री ४२०' में बड़े-बड़े बिल्डरों ने मेहनतकश गरीबों से १०० रूपये की एवज़ में मकान देने का लालच देकर करोड़ों रुपये डकारने की स्कीम बनाई थी। हृषिकेश मुखर्जी की 'अनाड़ी' में मोतीलाल ने नकली दवाईयों का धंधा करके लाखों रुपया कमाया। नायक राजकपूर उसका राज खोलता है। दिलीप कुमार की विधाता, दुनिया और मशाल की कहानी भी माफिया और बेशुमार अनैतिक धंधों की कमाई से जुड़ी हैं। अमिताभ बच्चन की फिल्मों की तो एक लंबी सूची है जिसमें वो अनैतिक व्यापार करने वाले गुंडों की धुनाई करते नज़र आये। यही काम रजनीकांत भी करते रहे हैं। उनकी कुछ साल पहले की 'शिवाजी, दि बॉस' ज़बरदस्त हिट थी। इस कड़ी में खोसला का घोसला, कॉरपोरेट, सत्या, कंपनी, ब्लड मनी, गुरू का भी नाम लिया जाता है।

देश में काले धन के खात्मे के लिए भारत सरकार ने ५०० और १००० के नोट बंद कर दिए हैं। लाज़मी है कि काले धन पर बैठी फ़िल्मी दुनिया के होश भी उड़े होंगे। शुक्र है कि सभी फ़िल्मी हस्तियों ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया है। बिना काले धन के छोटे बजट की फ़िल्में तो बन जाएंगी, लेकिन बड़े बजट और बड़ी स्टार-कास्ट वाली फिल्मों के निर्माताओं को बहुत मुश्किल होगी। मेज़ के नीचे से नकद या वस्तु की शक्ल में भुगतान लेने वालों को अपनी आदत बदलनी होगी। यों दुनिया में चालाक लोगों की कमी नहीं है। तू डाल डाल, तो मैं पात पात। कोई न कोई विकल्प तलाश ही लेते हैं। लेकिन इस बार शायद ऐसा न हो, बशर्ते सरकार ईमानदारी से इन पर कड़ी नज़र रखे।
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Published in Navodaya Times dated 23 Nov 2016
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