-वीर विनोद छाबड़ा
तात्या टोपे का जन्म १८१४ में नासिक में हुआ था। १८१८ में मराठा पेशवाई का अंत
हो गया। पेशवा बाजीराव-दिवित्य को आठ लाख रुपए की पेंशन देकर बिठूर भेज दिया गया। तात्या
टोपे के पिता पांडुरंग पंत बाजी राव के दरबार
में महत्वपूर्ण पद पर थे। तात्या टोपे का असली नाम रघुनाथ था। वो अपने पिता के साथ
कभी-कभी दरबार भी जाते थे। उनको प्यार से तात्या कहा जाता थे। एक बार बाजीराव ने खुश
होकर बालक रघुनाथ के सर पर रत्न जड़ित टोपी रख दी। तब रघुनाथ तात्या टोपे हो गए।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध १८५७ के गदर में तात्या टोपे ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा
की थी। बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब को अंग्रेज़ों ने पेशवाई और पेंशन देने
से इंकार कर दिया। नाना ने विद्रोह का एलान कर दिया।
नाना की सेना ने कानपुर और उसके आप-पास कब्ज़ा जमा लिया था। उसमें तात्या टोपे सेना
के चीफ कमांडर थे। उनकी सेना का संपर्क ग्वालियर की रानी लक्ष्मी बाई से हुआ। इसमें
भी तात्या का बड़ा हाथ था।
मगर पीठ में छुरा घोपने वालों के कारण अंग्रेज़ों के विरुद्ध मोर्चे में दरारें पड़ गयीं।
नाना कहीं लुप्त हो गए। रानी लक्ष्मीबाई का झांसी दुर्ग ढह गया और उधर ग्वालियर में
भी अंग्रेज़ों ने दिल तोड़ने वाली बड़ी शिकस्त दी।
इससे तात्या टोपे को बहुत आघात लगा। वो अकेले हो गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं
हारी। अपने मुट्ठी भर विश्वस्त साथियों को साथ लेकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध गुर्रिला
फाइट करने लगे।
तात्या अंग्रेज़ों के लिए बहुत बड़े सिरदर्द बन गए। लेकिन अपने विश्वस्त मान सिंह
की मुखबरी से तात्या को अंग्रेजी फ़ौज़ ने ०७अप्रैल १८५९ को गिरफ़्तार कर लिया। तात्या उस वक़्त वो सो रहे थे।
अंग्रेजी सेना ने उनका कोर्ट मार्शल किया। उन पर विद्रोह और हत्या का अभियोग लगाया।
जज ने पूछा - अपनी सफाई में कुछ कहना है?
तात्या ने गर्व से कहा - मैंने जो कुछ
किया है अपनी मातृभूमि के लिए किया है और ठीक किया है। मुझे मालूम है आप मुझे मौत के
सज़ा देंगे। मगर मैं आपके नहीं ईश्वर के न्यायालय और उसके न्याय पर यकीन करता हूं।
आख़िरकार तात्या को फांसी की सजा सुनाई गयी। १८ अप्रैल, १८५९ को जब उन्हें
फांसी के तख्ते पर खड़ा किया तो सिपाहियों ने उनके हाथ-पैर बांधने चाहे।
तात्या ने उन्हें झटक दिया - क्यों कष्ट कर रहे हो। फांसी का फंदा मैं स्वयं पहन
लेता हूं।
और यह कहते हुए तात्या फांसी के फंदे पर झूल गए।
तात्या को मध्य प्रदेश के शिवपुरी में फांसी दी गयी थी। उसी स्थल पर उनका स्मारक
भी मौजूद है।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि तात्या को फांसी नहीं दी गयी थी। वो अंग्रेज़ों के
विरुद्ध लड़ते हुए शहीद हुए थे।
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