Friday, February 17, 2017

तलब ने गिराया था

-वीर विनोद छाबड़ा
बाज़ तलब बड़ी ख़तरनाक होती हैं। अजीब हरकतें करने को मजबूर करती हैं?
मैं १९७० की सर्दियों में राजस्थान के बीकानेर शहर में ब्याही अपनी बड़ी बहन से मिलने जा रहा था। मैं बी.ए. में था तब।
उस दिन तो बलां की सर्दी थी। ट्रेनों में सन्नाटा था। लखनऊ से दिल्ली और फिर वहां से मीटरगेज की ट्रेन से सीधा बीकानेर। थ्री-टियर में जगह तो बिना रिजर्वेशन मिल गयी।
दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पांच अदद सिगरेट और माचिस की डिब्बी का इंतेज़ाम किया। इतने में रात कट जायेगी। ट्रेन में मुझे नींद नहीं न तब आती थी और न आज आती है। मगर सर्दी इतनी ज्यादा थी कि पांच सिगरेट नाकाफी पड़ीं। डेढ़-दो घंटे में ही फूंक गयीं।
आगे सादलपुर जंक्शन था। वहां ज़रूर मिलेगी। लेकिन बदकिस्मती की मार। ट्रेन जिस प्लेटफार्म पर रुकी थी, वहां सर्दी के मारे सारे टी-स्टाल बंद। सिगरेट की तो बात ही न पूछिए।
एक चलते-फिरते ने बताया - उधर एक नंबर पर सब मिलेगा। इधर तो कुत्ता भी ना होवे। 
रात आधी गुज़र चुकी थी। मगर सफ़र तो अभी आधे से ज्यादा बाकी था। और सर्दी की कुड़कुड़ाहट रुक न रही थी। लगता था, जान ही निकल जाएगी। तीन स्वेटर थे। दो हाफ आस्तीन और एक फुल्ल। अलावा इसके एक अदद कंबल। सर्दी रोकने के लिए नाकाफ़ी हो रहे थे।  
सादलपुर के बाद कई स्टेशन आये। लेकिन चाय नहीं मिली। सिगरेट तो दूर की बात थी।
जब कोई स्टेशन आता था तो बड़ी उम्मीद से प्लेटफार्म पर उतरता था। लेकिन हर बार गहरा सन्नाटा पसरा मिला। वहां की मिट्टी और आबो-हवा की गंध नथुनों में भरने का सुख ही हासिल कर पाता। इस बीच ड्रैक्युला की कई डरावनी फिल्मों की भी बेसाख्ता याद आती। पूरा बदन ऊपर से नीचे तक सिहर उठता। मैं फौरन डिब्बे में वापस हो लेता था।

ब्रॉडगेज के मुकाबले मीटरगेज की ट्रेन बड़ी मंथर गति से चलती है। उस दिन तो वक़्त ही जैसे ठहर गया हो।  
स्लीपर डिब्बे में भी तकरीबन सन्नाटा था। कुल पांच-छह यात्री रहे होंगे मुझे मिला कर। सब कंबल और रजाइयों में खुद को पैक करके सो रहे थे। एक तो गठरी बना हुआ एक बर्थ के कोने में दुबका हुआ था।
बिना सिगरेट-चाय के मेरा तो बुरा हाल। मिल जाए तो कड़ाके की ठंड का मुकाबला करना आसान हो जाता। हे भगवान दिला दो। सवा रूपए का प्रसाद कल ही हनुमान जी को चढ़ाऊं।
जरूरत अविष्कार की जननी होती है। हाई स्कूल परीक्षा में लिखा ये निबंध याद आया।
मैंने डिब्बे में सो रहे यात्रियों को ध्यान से देखना शुरू किया। शायद उसमें कोई सिगरेट पीने वाला हो या किसी के सिरहाने रखी डिब्बी मिल जाये।
दैवयोग से एक मिल ही गया। वही गठरी बना सोता हुआ बंदा। नीचे सिगरेट के ढेर सारे अधपिये टुर्रे बिखरे पड़े थे। वो ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे मार रहा था जो ट्रेन चलने के शोर के बावजूद साफ़-साफ़ सुनाई दे रहे थे।

मेरी तलब और हिम्मत ने उस सोते बंदे को जगाने पर मजबूर किया। लेकिन वो जाने कौन सी गोली खाए था कि उठा ही नहीं । बल्कि हिलाने पर गिरते-गिरते बचा। इसी का फायदा उठा कर मैंने उसकी ऊपर की जेब तक टटोल डाली। मगर कुछ हासिल न हुआ। ठनठन गोपाल। 
मगर मेरी तलब हार मानने वालों में से नहीं थी। इसने मुझे नीचे गिरने पर मजबूर कर दिया।
मैंने नीचे गिरे टुर्रों को हसरत भरी निगाह से देखा। आंखें चमक उठीं। चार-पांच टुर्रों में तो आधी सिगरेट बाकी थी। कोई फिल्टर सिगरेट थी। शायद रेड एंड व्हाईट थी। उस इलाके की खास सिगरेट। मैंने चोर निगाहों से इधर-उधर देखा। कोई भी तो नहीं था आस-पास। फौरन ही उन टुर्रों को बटोरा ताकि कोई दूसरा न आये जाये हिस्सा-बांट करने को। माचिस तो थी ही मेरे पास। मज़ा आ गया।
सुबह होने को थी। रतनगढ़ स्टेशन आ गया। यहां चाय के साथ-साथ उस इलाके में खासी चलन वाली कैवेंडर सिगरेट भी मिल गयी। फिर यहां से मेरा बीकानेर तक का बाकी सफ़र बड़े आराम से कट गया।

आज उस घटना को याद करता हूं तो बड़ी ग्लानि होती है। तलब ने कितना गिरा दिया था। 
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