-वीर विनोद छाबड़ा
मधुबाला की आख़िरी फिल्म
थी 'ज्वाला'। इसका निर्माण पचास के दशक के आख़िरी दौर में शुरू हुआ। आशा
पारेख इसमें मधुबाला की सहेली हैं। लेकिन इसका निर्माण मधुबाला की बीमारी के कारण बहुत
मंथर गति से चला। निश्चित ही यह डिब्बे में बंद रहती, अगर १९६९ में मधु परलोक
न सिधारी होतीं।
मधु को श्रद्धांजलि
स्वरुप समझिए या उसकी मौत को भुनाने के लिए, 'ज्वाला' डिब्बे से बाहर आई।
मधु की डुप्लीकेट के साथ बाकी फ़िल्म पूरी हुई। डबिंग भी कई नायिकाओं के सहारे हुई।
ज्वाला के हीरो सुनील
दत्त थे। सोहराब मोदी और प्राण की भी अहम भूमिकाएं थीं। सुनील दत्त ने इससे पहले मधुबाला
के साथ शक्ति सामंत की 'इंसान जाग उठा' में काम किया था। सुनील-मधु
पर फिल्माए दो गाने बहुत मशहूर हुए थे - चांद सा मुखड़ा क्यों शरमाया...न ये चंदा रूस
का है न ये जापान का...इस फिल्म की शूटिंग हैदराबाद से १०० किलोमीटर दूर कृष्णा नदी
के ऊपर नागार्जुन सागर बांध के निर्माण के समय हुई थी। मधुबाला शायद पहली बार आउटडोर
शूट पर थीं। उन्होंने सुनील दत्त को बताया - मुझे अपने मुल्क के मज़दूरों के साथ कंधा
से कंधा मिला कर काम करना बहुत अच्छा लगा। मैंने अपने भारत को बनते देखा।
बहरहाल, 'ज्वाला' रिलीज़ होने को थी।
सुनील दत्त के संज्ञान में आया कि प्रचार सामग्री में उनका नाम मधुबाला से पहले छपा
है। यह ठीक है कि उस समय सुनील दत्त की पोज़ीशन बहुत अच्छी थी और दिवंगत मधुबाला को
लोग लगभग भूल सा गए थे। और यह भी एक सच था कि मधु की भूमिका का ज्यादातर हिस्सा डुप्लीकेट
के सहारे पूरा हुआ था। लेकिन इन सबके बावजूद इस सच को झुठलाना मुश्किल था कि मधुबाला
सुनील दत्त से सीनियर थीं। 'इंसान जाग उठा' में भी मधुबाला का
नाम पहले था और दत्त साहब का बाद में। सुनील दत्त को यह बात अच्छी तरह याद थी। अतः
उन्हें 'ज्वाला' में अपना नाम पहले देख बहुत तकलीफ़ हुई। अगर
मधु ज़िंदा होती तो यकीनन उसे भी नागवार लगा होता।
यों भी सुनील दत्त
एक भद्र पुरुष के रूप जाने जाते थे। समाज में उनका काफ़ी रुतबा था। एक अच्छे फ़िल्मकार
भी थे। दत्त परिवार के मधु के बहुत अच्छे रिश्ते भी थे। जब मधुबाला की मृत्यु हुई थी
तो सुनील दत्त किसी काम से दिल्ली गए हुए थे। जैसे ही उन्हें मधु के गुजरने की खबर
हुई तो सारे काम छोड़ वो तुरंत बंबई लौटे और फिर एयरपोर्ट से सीधे मधु का घर पहुंचे
थे।
इधर 'ज्वाला' काफ़ी सामग्री पहले
से ही मार्किट में जा चुकी थी। इसे वापस मंगाना मुमकिन नहीं था। फिर भी सुनील दत्त
ने बची हुई प्रचार सामग्री में फ़ौरन मधु का नाम पहले रखवाया और पोस्टर्स में भी उनके
चेहरे को प्रमुखता देने अनुरोध किया। लेकिन फ़िल्म की नामावली में पहले सुनील दत्त का
ही नाम रहा - 'सुनील दत्त इन ज्वाला' और उसके बाद मधु और
बाकी कास्ट।
उन दिनों वरिष्ठ को
पहला स्थान दिए जाने का रिवाज़ था। जैसे अशोक कुमार की भूमिका भले कुल दस मिनट की हो
या महत्वहीन हो, नामावली में उनका नाम सबसे पहले आता था। यश जौहर की 'दुनिया' में दिलीप कुमार के
मुकाबले उनकी भूमिका बहुत छोटी थी, लेकिन सीनियर तो सीनियर ही है। अशोक कुमार
पहले और दिलीप कुमार बाद में।
वरिष्ठता
को लेकर कई बार विवाद भी हुआ। मनोज कुमार की 'रोटी कपड़ा और मकान' में अमिताभ बच्चन और शशिकपूर भी थे। शशि सबसे सीनियर थे। लेकिन
उस समय भाव मनोज और अमिताभ का था। सबसे पहले नाम किसका आये? इसे सुलटाने का तरीका ईज़ाद किया गया - मनोज, अमिताभ...एंड अबोव आल शशिकपूर। ---
Published in Navodaya Times dated 25 July 2017
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वाह वाह वाह। बहुत लिखा है छाबड़ा साहब आपने। वाकई आपसे हमें मौलिक जानकारी मिलती है।धन्यवाद।
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