Monday, February 27, 2017

ढिबरीवाला नकली भूत

- वीर विनोद छाबड़ा
उस दिन सारा शहर ठिठुर रहा था। ज्यादातर लोग घरों के अंदर रज़ाई में दुबक कर बैठे थे। लेकिन हम कई मित्र शमशान घाट पर थे। अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने एक प्रिय मित्र की अंतिम विदाई को आये थे। सूर्य देवता के सुबह से ही दर्शन नहीं हुए थे। चिरागों के जलने से अहसास हुआ कि सूर्यास्त होने को है। कई चिताएं एक साथ जल रही हैं। आज सुबह से ही मृतकों के आने का सिलसिला जारी है। जब सर्दी या गर्मी ज्यादा होती है तो आमद बढ़ जाती है। कई को अंतिम संस्कार के लिए प्लेटफार्म नहीं मिलता है। संयोग से हमारे मित्र को मिल गया। इसलिए कि दिन ढल चुका था। हिंदू धर्म के अनुयायी सूर्यास्त के बाद नहीं आते। लेकिन हमारे मित्र के परिवारीजन ये सब नहीं मानते थे।
मुखाग्नि के पश्चात ज्यादातर लोग खिसक लिए। लेकिन हम और हमारे मित्र निर्णय लेते हैं कि तब तक रुके रहेंगे जब तक कि चिता पूरी तरह आग न पकड़ ले। अंधेरा पूरी तरह छा चुका था और कोहरा भी घना हो चुका था। हम दोनों वहीं पास में ही एक बिना शट्टर वाली दुकान की सीढ़ी पर बैठ गए। उन दिनों नगर निगम की ओर से कुछ नए प्लेटफार्म बनाये जाने के अतिरिक्त इस स्थान को नया रंग-रूप और समस्त नागरिक सुविधाएं देने की कवायद चल रही थी ताकि ये स्थान थोड़ा रमणीक लगे। ये अर्द्धनिर्मित दुकान भी इसी कवायद का हिस्सा थी।

तभी हमने गौर किया कि हमारे पीछे किसी ने ढिबरी जलाई है। हमने मुड़ कर पीछे देखा। हां वाकई वहां कोई था। बदन में झुरझुर्री सी उठी। पूछा - कौन हो भाई। वो बोला यहीं साइट पर काम करता हूं। रात यहीं सो जाता हूं। ठेकेदार ने कहा है। सामान की रखवाली भी होती रहेगी।
कौतुहलवश हमने पूछा - ये नए प्लेटफॉर्म कब तक तैयार हो जायेंगे?
उसने पलट कर पूछा - आपको कब लेटना है?
हमें उसका जवाब कुछ अजीब सा लगा। कोई बेवकूफ है। हमने कोई जवाब नहीं दिया। सामने देखने लगे। तभी टार्च लिए एक सज्जन आये। वो मृतक के रिश्तेदार थे। बोले, देर हो रही है। आप जाओ। हम भी चल रहे हैं। हम उठे। अचानक हमारी निगाह पीछे की और गयी। ढिबरी नहीं जल रही थी। हमें कुछ संदेह हुआ। उन सज्जन के हाथ से  टार्च लेकर हमने देखा। हम सन्न रहे गए। वहां तो कुछ भी नहीं था। उस भयंकर सर्दी में भी हमारा पसीना छूट गया और घने कोहरे के बावज़ूद हम तूफ़ान मेल की रफ़्तार से हम बाहर निकले।

इस बीच हम एक दूसरे से कुछ न बोले। अपनी अपनी स्कूटी उठाई और घने कोहरे में रास्ता टटोलते हुए निकल लिए। रास्ते भर गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा की कुछ याद रही पंक्तियां गुनगुनाते हुए घर पहुंचे। समझो जान बची। पत्नी को कुछ न बताया। या तो डर जायेगी या हमें और भी डरा देगी। रात भर सिट्टी-पिट्टी गुम रही। नींद भी उडी रही। ज़रा सी आहट होते ही डर जाते थे और इस भयंकर सर्दी में पसीना निकल आता। घर भर की बत्तियां भी जलाई रखीं। मन ही मन वही गायत्री मंत्र का जाप और हनुमान चालीसा का पाठ।
सुबह हुई। मित्र का फ़ोन आया। चलो असलियत पता करते हैं। मित्र ज्यादा कठोर दिल था। उसे यकीन नहीं होता था ऐसी बातों पर। बहरहाल, हम वहां पहुंचे। पुरोहिती करने वाला एक मिल गया। उसे रात की घटना बताई। वो हंस दिया - हां, है एक बदमाश। मसखरा साला नकली भूत। यहां का माहौल ही ऐसा है कि थोड़ा हंसी-मज़ाक ज़रूरी है। आप डरो नहीं। हमारी जान में जान आई। हम भी हंस दिए।

कई साल हो चुके हैं। वो मित्र तो पांच साल पहले ही हमें अकेला छोड़ कर इस फानी दुनिया से निकल लिए हैं। उस दुकान में इस वक़्त नगर निगम का दफ्तर है। वो वही ढिबरी वाला नकली भूत वहां बाबू है, मृतकों की एंट्री करता है। अक्सर आने-जाने के कारण हमारी उससे मित्रता हो गयी है। हमें देख कर बोलता है - एंट्री कर दूं। 
हम मुस्कुराते हैं - अभी टाईम नहीं हुआ। 
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Published in Prabhat Khabar dated 27 Feb 2017
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