Monday, February 20, 2017

ओम गणेशाय नमः

- वीर विनोद छाबड़ा
कोई पैंतीस साल पहले की बात है। हम लखनऊ में कुटिया बनवा रहे थे। तब से अब तक इसमें कई बदलाव हुए हैं। कई मिस्त्रियों और मज़दूरों ने पसीना बहाया है। और हमारा तो खून और पसीना दोनों बहा है। दीवारें बोलती होतीं तो ज़रूर बतातीं कि इस मकान की पहली तामीर वली मोहम्मद मिस्त्री ने की थी। रिहाईश ज़िला गोपालगंज, बिहार। 
वो बड़े विचित्र प्राणी थे। काफ़ी वृद्ध भी। उनके चेहरे पर खिंची गहरी झुर्रियां उनके इतिहास और लंबे तजुर्बे का अहसास कराती थीं। किस्से-कहानियों से भरपूर। इन्हीं का लिहाज़ करते हुए हमने उन्हें हमेशा आप कहा। लेकिन कमाल का जीवट था। काम करने और कराने में उस्ताद। और एक नंबर के फेंकू भी।
वो हमारे पिताजी से हमेशा बात करते रहते थे। हमने पिताजी को कई बार कहा भी। इनसे बातें कम किया करें। काम के पैसे देते हैं, बातों के नहीं। लेकिन न तो पिताजी माने और न ही मिस्त्री चचा। हम उन्हें चचा कहते थे। 
मकान बनाने के दौरान वो कई बार बीमार भी पड़े। उनका बुढ़ापा देख कर हमें हमेशा डर लगता कि कहीं लुढ़क न जायें। भगवान से मनाते थे कि वो जल्दी से ठीक हो जायें। एक बार लंबे बीमार पड़े। घर पर डॉक्टर को बुलाना पड़ा। टाइफाईड निकला। पिताजी ने दवा-दारू का पूरा खर्च उठाया। अपने अर्धनिर्मित मकान में पनाह दी। बिजली-पानी, मूंग की दाल की खिचड़ी और मच्छरदानी भी। महीना भर लग गया उन्हें ठीक होकर काम पर आने में। इस बीच उनके निर्देशन में दूसरे मज़दूर-मिस्त्री काम करते रहे। उनके साथ-साथ पिताजी ने मिस्त्री चचा को भी दिहाड़ी दी।

एक दिन हमारी उनसे झड़प हो गयी। वो रोज़ पिता जी को नए-नए आईडिया दिया करते थे। इधर पिता जी को भी तकरीबन ब्रेन-वेव आया करती थीं। नतीजा यह हुआ कि काम बढ़ता गया और साथ में दाम भी। तीन महीने की बजाय छह महीने हो गए और फिनीशिंग अभी बाकी थी। हमने कह दिया कि पैसा ऐंठ रहे हैं आप। चचा एक लंबी 'जी' खींच कर चुप हो गए। वो रूठ गए। तीन दिन तक आये ही नहीं। काम रुक गया। इधर पिताजी हम पर गुस्सा हो गए। हम उन्हें मना कर लाये। इसके लिए हमें अपने कान पकड़ने पड़े।  
उनकी गंवई भोजपुरी भाषा बहुत अच्छी लगती थी। वो अपने साथियों से ही नहीं हम सब से भी इसी भाषा में बात करते थे। जब प्यार से बोलते होते तो लगता था कि किसी ने चीनी घोल दी हो।
चचा एक दिन अन्तर्देशीय पत्र लेकर आये। साहेब, एक चिट्ठी लिख दीजिये। हमने कहा, ठीक है। बोलिए। मैं लिखता हूं। चचा बोले, हां तो लिखिए। ओम गणेशाय नमः। हमें जोर का झटका लगा। उन्हें घूर कर देखा। चचा ने मेरी हैरत को बड़ी सहजता से दूर कर दिया। हमारे गांव में यही चलन है। रिवाज़ है। हमारे मुंह से बेसाख्ता निकला - वाह!     
उसके बाद चचा ने गांव भर के लोगों के नाम बोले। जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। लिखवाया कि इन सबको राम राम और वालेकुम सलाम पहुंचे। पत्र का पंचानवे फीसदी हिस्सा इसी से भर चुका था। फिर बची जगह में मजमून लिखवाया। राम लोटन के हाथ रुपया आठ सौ भिजवा रहा हूं। काम लगा है। वक़्त नहीं मिलता। इसीलिये इस बार ईद और बकरीद पर नहीं आ पाया। इंशाल्ल्लाह ज़िंदा रहा और आगे काम नहीं मिला तो दीवाली पर घर आऊंगा।
हमारी कुटिया पूर्ण हुई और इसके साथ ही मिस्त्री चचा की नई कमीज-लूंगी के साथ विदाई भी। लेकिन उनका आना-जाना कई साल तक लगा रहा।
एक दिन मिस्त्री चचा आये। बहुत उदास थे। बूढ़ा हो गया हूं। अब काम नहीं होता। घर लौट रहा हूं। इंशाअल्लाह ज़िंदा रहा तो मिलूंगा। एक दिन ख़त आया। हम वली मोहम्मद मिस्त्री के बेटे सलीम मोहम्मद। अफ़सोस के साथ इत्तिला है कि पिछले महीने अब्बा गुज़र गए।  
सुनते हैं सदियों में बुना गया ये सामाजिक समरसता का ताना-बाना हमारे देश के गांव-देहातों में पहले की तरह कायम नहीं है। और न वली मोहम्मद और राम लोटन ज़िंदा हैं।
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Published in Prabhat Khabar dated 20 Feb 2017
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