-वीर विनोद छाबड़ा
रेलवे स्टेशन के आस-पास
रहने के अपने मज़े हैं और दुःख भी। हम तो २२ साल रहे हैं। बचपन से जवानी तक के बेहतरीन
साल। स्टेशन के ठीक सामने रेलवे की मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में। हम कुछ एक्स्ट्रा ही
खुशकिस्मत रहे। सामने उत्तर रेलवे और दायें बाजू पूर्वोत्तर रेलवे। और खिड़की से साफ़-साफ़
दिखता उसका क्लॉक टॉवर। जब तक हम वहां रहे, रिस्ट वाच या टेबुल
क्लॉक की हमें ज़रूरत नहीं पड़ी। खिड़की खोली और टाईम देख लिया।
इसके अलावा भी सुविधायें
ही सुविधायें। दस कदम आगे दायें चले नहीं कि राजकीय बस अड्डा। चौबीस घंटे बस सेवा हाज़िर।
सामने सिटी बस अड्डा। घर से निकले नहीं कि रिक्शा-तांगा भी हाज़िर। कभी इंतज़ार नहीं
करना पड़ता। मुसाफिरों का आना-जाना तो कभी थमता ही नहीं। रात कोई मेहमान आ जाए और मेमसाब
मायके गयीं हों या गैस ख़त्म ने जवांब दे दिया। लेकिन कोई चिंता नहीं। मेहमान भूखा नहीं
सो सकता। मुसाफिरों की सुविधा के लिए बाज़ार और होटल तो चौबीस घंटे खुले ही हैं।
हमने तो बरसों मॉर्निंग
वॉक की है रेलवे प्लेटफॉर्मों पर। सुबह-सुबह मुंह में दातुन दबाया और चल दिए। एक नंबर
के लंबे प्लेटफॉर्म के एक छोर से दूसरे छोर तक। और फिर रिटर्न बैक। यह क़वायद तीन-चार
बार होती थी। हम लोग इसे मॉर्निंग वॉक नहीं, शंटिंग बोलते थे।
हम तिमंजिले पर रहा
करते थे। दोनों स्टेशनों का नज़ारा साफ़ साफ़ दिखता था। स्टेशन से निकलती भीड़ देख कर बता
देते थे कि पंजाब मेल है या गुवाहाटी एक्सप्रेस। कहीं जाना होता था तो दस मिनट पहले
निकलते। दो मिनट नहीं लगे कि पता चला कि प्लेटफॉर्म पर हाज़िर हैं। अब चूंकि रेलवे कॉलोनी
में रहते थे सो कोई टीटी तो कोई गार्ड। कहीं भी आना-जाना फ्री समझो। बनारस और दिल्ली
तो यूं जाते थे जैसे बाजार टहलने जा रहे हैं।
मगर स्टेशन के सामने
रहने के नुकसान भी कम नहीं झेले। हमें याद है जब तक हम स्टेशन के सामने रहे हमारी मित्र
सूची अनावश्यक रूप से बहुत लंबी रही।
रात-बेरात खट-खट हुई।
दरवाज़ा खोला। धक्का देते हुए आधा दर्जन बच्चों के साथ धड़धड़ा कर रिश्तेदार अंदर। ट्रेन
पूरे चार घंटा लेट है। दस किलोमीटर लौट कर जाना घर जाना कोई समझदारी तो है नहीं। और
फिर वहां प्लेटफॉर्म इतना गंदा है कि पूछा मत। सोचा आप ही के घर विश्राम कर लिया जाए।
इसी बहाने कुछ गप-शप हो जायेगी। बच्चे थोड़ी नींद मार लेंगे...रात दस बजे एक मित्र परिवार
सहित आ धमके। ट्रेन रात दो बजे छूटनी है। इतनी रात गए अकबरी गेट से रिक्शा बड़ी मुश्किल
से मिलता है बहनजी। मिल भी जाए तो ख़तरा कौन मोल ले? भलाई का ज़माना तो है
नहीं। तीन छोटे-छोटे बच्चे और ऊपर से जवान ननद। इसलिए अभी आ गए....रात बारह बजे घंटी
बजी। मेहमान हाज़िर। क्या करें? मरी ट्रेन लेट हो गयी। ठंड बहुत ज्यादा है।
दूर दूर तक घना कोहरा। अपने हाथ तक नहीं दिख रहे। बच्चे साथ न होते तो जैसे-तैसे चले
भी जाते। अब सुबह ही निकलेंगे। चलो बच्चों घुस जाओ, भैया और चाचा की रजाईयों
में।
बहुत नज़दीकी वाले मेहमान
तो डिनर पर भी हाथ साफ़ करने से भी नहीं हिचके। अन्यथा मेहमान का दर्जा तो हासिल है,
चाय-पानी पूछना तो बनता ही था। याद नहीं है हमें कि किसी को इंकार करते हुए कभी
देखा हो।
घर न हुआ रेलवे का
विश्रामगृह हो गया। कई बार तो ऐसा हुआ कि मेहमान खटिया पर और हम छत पर सोने चले गए
या बरामदे में ज़मीन पर दरी बिछा कर लेट गए। नींद तो कोसों दूर रही। करवटें बदलते रहे।
यह जीवन है इस जीवन का यही है रंग रूप.…
ऐसे-ऐसे मेहमानों का
आना हुआ जिनसे दूर-दराज़ का रिश्ता रहा। कई बार तो रिश्तेदारों के पड़ोसी आ धमके। कई
लोग तो पिताजी से सिफ़ारिश लगवाने आये कि आप रेलवे में हैं और फिर स्टेशन के सामने भी।
बड़ी वाक़फ़ियत भी होगी। माता का बुलावा आया है। जम्मू का रिजर्वेशन चाहिए।
हमें लगता है कि रेलवे
स्टेशनों के आस-पास रहने वालों के साथ आज भी कमो-बेश यही स्थिति है।
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Published in Prabhat Khabar dated 06 Feb 2017
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बहुत ही रोचक और लाजवाब लेख लिखा है।
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