-वीर विनोद छाबड़ा
लखनऊ के चारबाग़ रेलवे स्टेशन के सामने रेलवे की एक रिहाइशी इमारत होती थी मल्टी
स्टोरी। पिताजी रेलवे मुलाज़िम थे। मैं इसमें १९६१ से १९८२ तक करीब २१ रहा हूं। इसके
पीछे एक सिनेमाहाल था सुदर्शन। हाफ रेट का सिनेमाहाल। अभी कोई पंद्रह दिन पहले ये नयी
साज-सज्जा के साथ सुदर्शन चारबाग़ के नाम से फिर शुरू हुआ है।
संयोग से आज मेरा मेरा इधर से गुज़ारना हुआ। कई यादें ताज़ा हो गयीं।
मैंने यहां ढेर फ़िल्में देखी हैं। गेट कीपर से सेटिंग कर रखी थी। आधी फिल्म आज
और बाकी कल। घर में कानोंकान खबर नहीं होने पाती थी।
जब तक मैं मल्टी स्टोरी में रहा यही पाया कि सुदर्शन में विजिट करने वालों में
कुछ तो आस-पास के रहने वाले लोकल थे। ये वो थे जिन्हें खटमलों से बेहद इश्क़ था। या जिन्हें खटमल के होने से फर्क नहीं
पड़ता था। घर में भी खटमल और यहां भी।
ज्यादातर तमाशबीन रिक्शा-तांगेवाले। होटलों और ऑटोगैराज में काम करने वाले कामगार।
खोमचा लगाने वाले कमउम्र बच्चे।
अलावा इसके एक अच्छी संख्या उन व्यापारी मुसाफिरों की थी जिन्हें दिन भर की खरीदारी
करने के बाद लखनऊ जंक्शन से रात बारह बजे वाली गोरखपुर वाली ट्रेन पकड़नी होती थी।
और वो मज़दूर भाई भी जो सुबह दिल्ली-बम्बई से आकर लखनऊ उतरता था। दिन भर परिवार
के लिए उपहार खरीदता था। खूब ठगा जाता। और वही रात बारह बजे गोरखपुर की ट्रेन।
सुदर्शन फिल्मिस्तान लिमिटेड की सिनेमा चैन में था। इसलिए फ़िल्में अच्छी ही होती
थीं। प्रिंट बस गुज़ारे लायक होते थे।
जिस मक़सद से मैं ये पोस्ट लिख रहा हूं वो ये बताने के लिए है कि टाइम पास के लिए
सुदर्शन सिनेमा से बढ़िया और सस्ती कोई मुफ़ीद जगह नहीं थी।आसपास कोई और सिनेमाहाल या
रमणीक स्थल भी नहीं। जिसको फिल्म देखनी है, देखे बड़े शौक से और जिसे सोना है, तीन घंटे सो ले आराम
से। ट्रेन चलने से ठीक १५-२० मिनट पहले उठ लेना है। फिल्म छूट जाए तो छूटे। बस गड्डी
न छूटे।
वहां इसी चक्कर में हंगामे भी होते रहते थे। फिल्म देखते-देखते ऐसी ज़बरदस्त नींद
आती थी कि ट्रेन छूट जाती थी। शामत बेचारे गेटकीपर की आती कि उठाया क्यों नहीं। बेचारे
गेटकीपर का यही जवाब होता था - साहब इतनी वाहियात फिल्म थी कि मैं खुद ही सो गया।
कुछ इसलिए बिगड़ते - इतनी ठायें-ठायें थी कि एक मिनट भी नहीं सो पाये। पहले क्यों
नहीं बताया?
हां एक मुख्य बात और। रिक्शे-तांगेवालों, मज़दूरों और फुटपाथ ज़िंदगी बसर करने वालों का भी दिल होता था।
उनकी भी प्रेमिकाएं होती थीं। दिन भर तो बेचारे मेहनत मजूरी करते थे और रात सुदर्शन
सिनेमा। जब कभी पुलिस को जेब भरनी होती सुदर्शन पर छापा मार दिया। अच्छी खासी वसूली
हो जाती।
अब सुदर्शन नयी साज सज्जा के साथ पुनः लौट आया है। सुना है अभी इसका मुखौटा भी
बदलेगा। ट्रेनों की संख्या दुगनी तिगुनी हो गई है। बस अड्डा भी चारबाग़ लौट आया है।
पुलिस तो पुलिस है। न तब बदली और न अब बदली है। उम्मीद है। खूब चलता होगा ये सुदर्शन
चारबाग़।
मेरे ख़्याल से हर शहर के रेलवे स्टेशन या बस अड्डे के आस पास मुसाफिरों को राहत
देने वाला एक आध ऐसा सिनेमा ज़रूर होगा।
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21 Feb 2017 mob 7505663626
D-2290 Indira Nagar
Lucknow - 226016
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